विजयादशमी

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कलियुग के बारे में कहा जाता है कि यह अन्य युगों से कई कारणों से भिन्न है। इस युग की विशेषता कुतर्क की सीमा तक पहुँचती तार्किकता और अपने आस्तित्व को भी खतरे में डालती नास्तिकता है। यह वह युग है जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम में दोष ढूँढे जाते हैं और अधर्मी रावण में गुण। यही नहीं बल्कि ऐसे विषय पर चर्चाएं होती हैं और राम को रावण बताने के भरसक प्रयास किये जाते हैं। ये कौन से लोग हैं? कोई भी हो सकते हैं पर निश्चित ही भगवान श्री राम के उपासक तो नहीं हो सकते।

एक बार मैंने मेरी माँ से पूछा कि कोई भगवान पर प्रश्न क्यों नहीं उठा सकता है। उनका उत्तर था,”व्यक्ति की साधना और दृष्टिकोण उसे ऐसा करने से रोकते हैं।“ प्रभु श्री राम ने मनुष्य के रूप में धरती पर जन्म लिया था। इसलिए मृत्यु लोक के सुख-दुख भोगना उनके लिए भी आवश्यक था। भगवान के जीवन की घटनाओं से हम अपने दृष्टिकोण के अनुरूप शिक्षा ले सकते हैं। मेरी माँ का मानना है कि साधना प्रेम का ही एक रूप होता है। प्रेम से ऊँचा स्थान साधना का होता है क्योंकि इसके अंतर्गत हम जिसे प्रेम करते हैं, उसकी भक्ति भी करते हैं। प्रेम में व्यक्ति प्रेमी की आलोचना कर सकते हैं या उसके अनुराग को आँक सकता है, परन्तु साधना में नहीं। एक बार पड़ोस के युवक ने माँ से पूछा,”किसी फल की इच्छा से यदि कोई दस बरस तक तप करे परन्तु प्रभु प्रकट नहीं हुए तो?” माँ ने उत्तर दिया था,”उपासक ईश्वर में विश्वास रख अगले दस वर्ष तक उपासना बढ़ा देगा क्योंकि भक्ति यही है।”

रावण के दस सर बनाकर उसे वार्षिक समारोह की तरह कलियुगी ज्वाला में भस्म कर देना ही दशहरा नहीं है। मेरे विचार से आज के युग में रावण एक सोच है। ऐसी सोच जो मन्थरा के भड़कावे में आकर अपने पुत्रों के वनवास का कारण बनती है। ऐसी सोच जो आपको परायी स्त्री का हरण करने वाले रावण को साधु मानने को विवश करती है। ऐसी सोच जो आपको किसी की मृत्यु पर विद्रूप हास्य करने को उकसाती है। ऐसी सोच जो आपके शोक को मुखर करती है। ऐसी सोच जो आपको आपके कर्तव्य पथ से भाँति भाँति के कारणों से विमुख करती है। ऐसी सोचों की पूरी सूची बनाने लगें तो यह बहुत लंबी होगी।

प्रभु राम का नाम मन को सहज रखता है। यह जो उत्तेजित करता है, कहीं वह शिव जी का प्रसाद तो नहीं। उत्तेजित होकर पौराणिक या आधुनिक महाभारत के छल- प्रपंच को उचित कहने की सोच भी रावण है। सोचने की बात है कि कहीं आप क्रोध में धर्म के समोसे वितरित करके राम के स्थान पर रावण को प्रसन्न तो नहीं कर रहे हैं। किसी नास्तिक का भी राम पर उतना ही अधिकार है जितना किसी उपासक को है, चाहे वह अंत समय में ‘हे राम’ कहने वाला व्यक्ति हो या उस व्यक्ति का अंत समय लाने वाला मनुष्य।

कुछ समय पूर्व एक कहावत रावण के महिमामंडन में प्रचलित हुई थी, “भाई मिले तो रावण जैसा।” ऐसा भाई किसी महिला को क्यों चाहिए होगा जो एक महिला के अपमान का प्रतिशोध दूसरे के अपमान से पूर्ण करे।

माँ प्रायः एक भजन गाती हैं जिसका भावार्थ है कि शुद्ध मन ने एक गज के पुकारने पर किस प्रकार प्रभु श्री राम एक मगरमच्छ से उसके प्राणों की रक्षा करते हैं। समझदार व्यक्ति प्रश्न करने से पहले इस बात को समझेंगे कि यहाँ दो बातें लिखी गयी हैं। एक मन के शुद्ध होने का और दूसरा उसी शुद्ध मन से दुःख की घड़ी में प्रभु को पुकारने का। बचपन में जब भी कोई मुझे प्रश्न करता था कि बड़ा होकर क्या बनना चाहती हो। मेरा उत्तर होता था, “न्यायाधीश।“ यह उत्तर इसलिए था क्योंकि इससे बड़ा मैं कुछ सोच नहीं पाती थी। आज आम जीवन में हम सब न्यायधीश बने घूमते हैं और स्वयं वकालत कर अप्रिय व्यक्ति को दोषी और प्रिय व्यक्ति को तमाम गुनाहो निर्दोष करार देते हैं। मेरे विचार से यह तरीका भी रावण का है। रावण के दस सिरों की तरह दस अवगुण स्वयं में ढूँढकर क्यों न हर वर्ष दशहरे पर उन्हें भस्म किया जाए।

क्यों न हम अपनी गलतियों के आरोपी स्वयं बने और किसी मन्थरा से तमाम उम्र झूठी नफ़रत न करें। क्यों न हम गलत को गलत की धार से काटने वाला रावण न बनकर सच्चाई व न्याय पर भरोसा करें। प्रेम में सिर्फ़ सुख की अपेक्षा न करके दुःख साथ भोगने को भी सुख समझें। और अन्य मनुष्यों की व्यथा को अपना सा मानकर उन्हें सांत्वना दें।

विजयादशमी पर इससे ही मिलती जुलती काँव काँव आपके मन में उठती ही होंगी। विजयादशमी और दशहरा की ढ़ेरों शुभकामनाएं स्वीकार करिए।

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