स्मृति शब्द-चित्र – स्व. नगनारायण दुबे
रविवार की एक दोपहर अचानक पंडित जी याद आ गये और उनकी स्मृति में मैं एक शब्द चित्र बनाने लगा। यकीन करिए – यहाँ वर्णित घटनाएँ घटित हैं, रचित नहीं। पात्र और उनके नाम तक वास्तविक हैं।
पंडित जी से मेरा पहला साक्षात्कार तब हुआ था जब मैं १०-११ वर्ष का था। एक दिन मैं अपने पुराने खपरैल घर की खिड़की पर खड़ा होकर ‘खइके पान बनारस वाला…’ गा रहा था। हमारे घर के पीछे स्थित अपने घर के दुआर पर बैठे पंडित जी ने मुझे गाते हुए सुना और बोले, “देखs लइका केतना चनसगर बा, सुग्गा जइसन गावत बा आ टाँसी जइसन गला बा (क)।“
पंडित जी का पूरा नाम नगनारायण दुबे था। छह फीट उँचे पंडित जी की कद काठी सेना के किसी फिट कर्नल जैसी थी, रंग गेहुँआ था। पंडित जी स्कूल गये थे, क्योंकि उन्हे ‘रामs गति देहु सुमति‘ (उन दिनों विद्यालयों में पहला पाठ यही होता था) कंठस्थ याद था। बहरहाल, उनकी शिक्षा चाहे जितनी हो पर वह निर्विवाद रुप से गाँव के सर्वकालीन निश्छल व्यक्तियों में से एक थे। यही निश्छलता उन्हे गाँव में आदरणीय बनाती थी। निश्छलता के साथ हकला कर बोलना भी उनकी एक यूएसपी थी।
एक बार पंडित जी की एक दूसरे पंडित जी से कहा सुनी हो गयी. गुस्से में दुबे जी बोले; “ह…ह… हमार नाम हs न…न…नगनारायन दुबे (ख)।” जबाब मिला; “आ हमार नाम हs तिरलोकीनाथ मिसिर (ग)।” दोनों पंडित जी ने अपने अपने नाम इस तेवर से बताए, गोया पहले जन पूरे नगर के नारायण हों और दूसरे तीनों लोकों को स्वामी। एक दूसरी घटना में पंडित जी गाँव के जबार मियाँ पर इतने क्रुद्ध हुए कि लंबी छर्र वाला अपना भाला लेकर आ गये। वार करने के लिए भाले को पीछे खींचा ही थी कि पंडित जी कराहकर गिर पड़े क्योंकि भारी तनाव में वह भाले की नोंक गलती से अपनी ओर कर बैठे थे। कहते हैं कि घायल पंडित जी को जबार मियाँ ही सरकारी अस्पताल ले गये थे।
पंडित जी के दो पुत्र थे – किशोर दुबे और जयकिशोर दुबे। मेरे बाबा बताते थे कि उनके बड़े बेटे किशोर दुबे की शादी के लिए एक पंडित जी आए थे जो मेरे बाबा के परिचित थे। शादी की बात चली तो पंडित जी 5000 रुपया तिलक की माँग पर अड़ गये। 70 के दशक में दहेज की यह राशि बहुत बड़ी थी। वधु पक्ष इतनी बड़ी राशि देने में सक्षम नहीं था। मेरे बाबा ने हस्तक्षेप किया, “पंडिज्जी हमरा नाम पर कुछ कम करेब?(घ)” पंडित जी बोले, “बो…बो…बोलीं म…म…माट्ट साहेब बोलीं (च)।” बाबा ने लोहा गर्म देखकर चोट किया, “एगो सुन्ना कम कर दीं पंडिज्जी (छ)।” पंडित जी का निश्छल उत्तर आया; “ए…ए… एगो सुन्ना से नगनारायन के कवनो कोन भूसा ना टेढ़ होई, जाईं मंजूर बा (ज)।” और फिर पंडित जी के बड़े पुत्र की शादी तय हो गयी। तिलक के रुप में क्या लेन देन हुआ, इसकी कोई पक्की जानकारी नहीं।
एक दिन अपने दलान में बैठे पंडित जी की किसी बात पर अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकिशोर दुबे से बहस हो गयी। राजकिशोर दुबे अकड़ते हुए बोले, “हमरा का चिन्ता बा, हम दुगो हाथी पोसले बानी (झ)।” दो हाथियों से राजकिशोर दुबे का अभिप्राय अपने दो पुत्रों से था। इस पर पंडित जी चुप कैसे रहते, बोले; “ब…ब… बबुआ ह…ह… हमहु दुगो हाथी पो…पो… पोसले रनी हs, एगो तू हउअs (ट)। ” बहस खत्म नहीं हुई। पंडित जी ने अपने बेटे को शास्त्रार्थ की चुनौती दे डाली। शास्त्रों और मंत्रों से पंडित जी का एक्सपोजर इस बात से समझा जा सकता है। एक बार पंडित जी ने ईंट का भठ्ठा लगाया था। भठ्ठे की पूजा वह स्वयं करवा रहे थे और उनके बड़े पुत्र पूजा पर बैठे थे। पूरी पूजा के दौरान पंडित जी एक ही मुख्य मंत्र पढ़ते रहे, “म…म… मसूरी के दाल भ…भ… भठ्ठा लाले लाल … (ठ)” और बीच बीच में बोलते रहे, “कि…कि… किशोरवा टीक छू ले (ड)।
एक बार राजपूतों के आपसी झगड़े में पंडित जी पुलिस थाने के चक्कर में पड़ गये। थाना-सिपाही से फ़ारिग होकर वह मेरे पापा से मिले और बोले, “आज से तहनी चहवनवन के फेरा में ना परेब बबुओ (ढ)।” ऐसे अनेकों संस्मरण आज भी स्मृति पटल पर अंकित हैं पर उन सबको यहाँ रखूँ तो आलेख के लंबा और बोझिल हो जाने का खतरा है और आपके न पढ़ने का जोखिम भी। फिर कभी संयोग बना तो अवश्य लिखूँगा।
पंड़ित जी को मेरी तरफ से भावभीनी श्रद्धांजलि!
भोजपुरी शब्दों और वाक्यों का हिन्दी अनुवाद
(क) देखो, बालक कितना सुरीला गा रहा है, बहुत होनहार है।
(ख) मेरा नाम है नगनारायण दुबे।
(ग) और मेरा नाम है त्रिलोकीनाथ मिश्र।
(घ) पंडिज जी, मेरे नाम पर कुछ कम करिएगा?
(च) बोलिए मास्टर साहब।
(छ) एक शून्य कम कर दीजिए, पंडित जी
(ज) एक शुन्य से नगनारायण का कुछ नहीं बिगड़ेगा, स्वीकार है।
(झ) मुझे क्या चिन्ता, मेरे पास दो-दो हाथी
(ट) बबुआ, मेरे पास भी दो हाथी थे। उन्हीं में से एक तुम हो।
(ठ) भठ्ठे के ईंट मसूरी के दाल जैसे लाल हों।
(ड) किशोर, अपनी शिखा छू लो।
(ढ) बबुआ, अब से मैं तुम चौहानों के चक्कर में नहीं पड़ूँगा।