साहुन – भाग 2

… गतांक से आगे
साहुन तेजी से घर की ओर बढ़ रही थी। आज डगरू की रिहाई थी। घर पहुँचकर उसने चिलम जलायी और देहरी पर बैठ गयी। उसे डगरू के मुस्कुराते हुए चहेरे का बेसब्री से इंतज़ार था। वह आ गया। डगरू अपनी अम्मा को देखकर भावुक हो गया और आते ही पैरों में जा गिरा।
साहुन: रोने-धोने की ज़रूरत नहीं है। जाकर रोटी खाओ, कमज़ोर हो गए हो।
डगरू: अम्मा वा कहाँ है?
साहुन: वा ससुरी तौ मोती के साथ भाग गई। तुम फालतू उसके आदमी के खून की सज़ा काट कर आये।
डगरू (खीझकर): अम्मा, ये भगोड़ी औरतों का कोई ईमान धरम नहीं होता।
साहुन ने चुप्पी साध ली। फिर ठिठककर पूछा: जल्दी कैसे छूट गए?
डगरू: उस आदमी के नाम पर पुलिस ने इनाम रखा था। अदालत ने आपसी जिरह में हुआ खून मानकर मुझे सजा दे दी, पर सुरेश ठाकुर ने साबित कराया कि मुझ पर हमला हुआ था। इस तरह कुछ साल सजा काटकर वापस आया हूँ।
साहुन: ठाकुर पर क्यों इतना भरोसा कर रहे हो? वह आज भी मुझसे नफरत करते हैं। आज सुबह ही मुझे गलत-सलत बोल रहे थे।
डगरू: वह सबसे भले आदमी हैं। बस आपसे ज़रा सा मज़ाक कर देते हैं। अच्छा, मैं उनसे मिलकर आता हूँ।
डगरू सुरेश ठाकुर के घर की ओर बढ़ता है। घर के द्वारे बैठे सुरेश ठाकुर कुछ हिसाब कर रहे थे। खसरा-खतौनी औऱ बही सब तख्त पर रखा था। ठाकुर का खास आदमी चुन्नी लाल उनके दाएं खड़ा था। डगरू वहाँ पहुंचता है, राम जुहारी करता है और ज़मीन के कुछ कागजात पर अंगूठा लगाता है।
सांझ होती है। कमरे से आ रही आवाज़ से प्रतीत होता है कि सुरेश ठाकुर और उनकी पत्नी माला बातें कर रहे होते हैं।
माला: यह ज़मीन उससे वापस लेने की क्या ज़रूरत थी? आपके पास कोई कमी है?
सुरेश ठाकुर: तुम कुछ नहीं जानती हो। यह ज़मीन मेरी ही थी, इसलिए वापस ले ली। डगरू को चाहिए होगी तो वापस कर दूंगा। मैं साहुन जैसा बेईमान नहीं हूँ।
माला: उसने क्या बेईमानी की है?
सुरेश ठाकुर: बप्पा ज़मींदार थे। उनके बच्चे बचते नहीं थे। बुढ़ापे में बड़े भैया और उनसे 10 साल छोटा मैं पैदा हुए। घर-खानदान बेईमान मिला। साहुन हमारे घर काम करती थी और उसी ने सबसे बड़ी बेईमानी की।
माला: पर साहुन तो बाबू ठाकुर के घर काम करती थी ना?
सुरेश ठाकुर: सुन लो पहले, फिर सवाल करना। आषाढ़ के महीने में साहू जगतपुर गांव से साहुन को भगाकर ला रहा था। बारिश हुई थी। ये दोनो जिस ट्रक से आ रहे थे, वह गांव की कच्ची राह में फंस गया था। साहुन के गांव वाले दोनों को ढूंढ रहे थे, इसलिए दोनों ट्रक से उतरकर पास के गांव में छिपने गए, पर वहाँ से भी भगाये गए। यहां आए तो साहू की बिरादरी ने इनको बेदखल कर दिया था। बप्पा ने घर के पीछे रहने को ज़मीन दी थी और अम्मा पीछे वाले दरवाजे से साहुन को खाना दिया करती थीं। बप्पा दयालु थे। उन्होंने भंडारा कराया जिससे साहू को फिर बिरादरी वालों ने अपना लिया।
माला: पर इसमें साहुन का क्या दोष?
सुरेश ठाकुर: बप्पा ने साहू को एक दुकान खोलने के पैसे दिए थे। जिसके बदले साहू ने अपना तराई का खेत बप्पा के नाम किया था। उस ज़मीन पर हमारा कब्जा तो था पर नाम नहीं लिखा पाए। चकबंदी हुई तो हमारी एक पास की ज़मीन टुकड़ो में बँट गयी। अम्मा बीमार ही थीं। साहुन ने घर पर काम करना छोड़ दिया और दुकान पर बैठने लगी। बाबू भैया और गुनी ठाकुर के चक्कर दुकान पर लगते थे। साहुन के चक्कर मे ही बाबू ठाकुर ने साहू को अपने घर काम पर रख लिया। फिर दुकान में कुछ घाटा दिखाकर साहुन भी बाबू भैया के घर काम करने लगी थी। हम कुछ कर नहीं सके क्योंकि बप्पा बूढ़े हो गए थे। हम दो भाई भी उम्र में छोटे थे। आसपास के लोग हम दोनों को जान से मारने की धमकी देकर बप्पा से ज़मीन लिखाते रहे। गांव के तालाब पटवा कर खेत नाम कराये गए। जितने चारागाह थे, सब पर सब ने कब्जा किया। बप्पा ने रोकने की कोशिश की तो घर ने लोगों ने छोटे चाचा की हत्या करवा दी। क्या क्या नहीं हुआ। खैर, एक दिन बाबू भैया ने साहुन को गोबर और करकट हमारे हाते में डालने को कहा। बप्पा द्वारे पर बैठे थे। उन्होंने चिल्लाकर उसे मना किया और बेंत फ़ेंककर मारने की कोशिश की। इस कोशिश में वह स्वयं को संभाल ना सके और गिर गए। उसके बाद कुछ दिन तक जिये और चल बसे। इस प्रकार जहाँ हमारे जानवर बांधे जाते थे, वहां बाबू ठाकुर का कब्जा हो गया था।
माला: साहुन तो अपने मालिक का कहा कर रही थी?
सुरेश ठाकुर: पर वो हमारे एहसान इसलिए भूली क्योंकि वो बेईमान थी और हम कमज़ोर। बप्पा के मरने के कुछ साल बाद बाबू भैया और हमारे परिवार में बोलचाल शुरू हो गया था। मैं 12 साल का हो चुका था। एक बार बाबू भैया ने मुझे साहुन की बनायी हुई शराब पीने को कहा। मैंने मना किया तो उन्होंने मुझे कसम दी और कहा कि सिर्फ जूठा कर के छोड़ दूँ। मैने फिर भी ना माना तो भैया ने शराब मुझ पर फेंक दी। साहुन इस बात पर बहुत हँसी। उसका अट्टहास मुझे मेरे कमज़ोर होने का भाव दे गया। बात इतनी ही नहीं, ज़हरीली शराब पीने के कारण जब साहू की मौत हुई तो हमारे कब्जे वाली जमीन साहुन और उसके बच्चों के नाम आ गई। उसके बाद बाबू भैया की मदद से साहुन ने वह ज़मीन हमसे छीन ली। आज उसी के कागजात पर मैंने डगरू का अंगूठा लिया है।
माला: पर साहुन को तो गांव से भगा दिया गया था? फ़िर वह दुबारा वापस कैसे आयी?
सुरेश ठाकुर: सुनो, ज़्यादा व्योमेश बक्शी न बनो। चाय बना कर दो, जाओ तुरंत!
तभी कोई घर का दरवाजा खटखटाता है। सुरेश ठाकुर दरवाजा खोलते हैं तो सामने साहुन खड़ी होती हैं। वह ठाकुर के पैरों पर गिरती है और रोने लगती है।
साहुन: ठाकुर ज़मीन लौटा दो। पोता पोती भूखे मर जायेंगे।
सुरेश ठाकुर: कोई भूखा नहीं मरेगा, सब हमारे खेतों में काम करेंगे। ज़्यादा से ज़्यादा मैं अपने सभी खेत तुम्हारे बच्चों को बटाई दूँगा।
साहुन: क्यों बदला ले रहे हो ठाकुर? इतने में पूरा नहीं पड़ेगा।
सुरेश ठाकुर: कैसा बदला? वैसे भौजी अब तुमको वो हँसी नहीं आती जो बाबू भैया के ओट से आती थी।
साहुन: ठाकुर, आप जानते तो हैं कि उस वक्त मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी।
सुरेश ठाकुर: काहे मरने के वक़्त झूठ बोलती हो। बाबू भैया तो तुम्हे प्रेम करते थे। तुम्हारे चक्कर मे उन्होंने अपना सब कुछ भिन्जार दिया।
साहुन: गलत। वो प्रेम करते होते तो ठकुराइन दिदिया के मरने के बाद मुझे अपना लेते, अपनी साली ना ब्याहते।
सुरेश ठाकुर: साहुन तुम जैसी कपटी औरतें कैसे सहजता से ऐसी अधर्मी बाते करती हैं। जैसे तुम्हारे बुरे कर्मो को झुठला कर तुम्हे अपनाना उनका कर्त्तव्य रहा हो। बाबू भैया तुम्हे प्रेम करना और तुम्हारी परवाह करना जानते थे। साथ ही वह यह भी जानते थे कि तुम्हे जीवन मे लाकर उनका और उनके बच्चों का जीवन कितना नर्क होने वाला है।
साहुन: सुरेश बाबू आपको बाबू ठाकुर से नफरत होनी चाहिए पर नही, आप मुझ जैसे कमज़ोर पर ज़ोर दिखा रहे हैं।
सुरेश ठाकुर: नफ़रत थी, पर भैया ने मुझे सब सत्य बताया, माफी मांगी और पश्चाताप किया। उससे क्या नफरत की जाए जिससे गलती हुई हो और वह मान ले पर तुम जैसे लोगों को कैसे माफ किया जाए, जो गुनाह कर के भी स्वयं को साहूकार समझे और प्रेम करने वाले को मूर्ख। वैसे भी तुम्हारे डगरू वाले झूठ ने ठकुराइन भौजी की जान ली। यह सच मैं कभी नहीं भूल सकता।
साहुन: ठाकुर, प्रेम मुझे भी था पर …
कमशः …
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