रूही – एक पहेली: भाग-4
रूही को मोहित से बहुत प्यार था। ये बात रूही मोहित को कैसे बताती। कैसे बताती कि मोहित है तो रूही है, कैसे बताती कि मोहित को देख कर जीती है, कैसे बताती कि मोहित में जान बसती है रूही की ।
देर हो चुकी थी। रूही जब तक आती, मोहित जा चुका था।
रूही के पास मोहित का नंबर नहीं था। मोहित उसको हफ्ते में किसी भी दिन फ़ोन कर देता था। रूही कभी उठा पाती थी कभी नहीं। उसको पता भी नहीं चलता था कि मोहित का फ़ोन था या किसी और का । पहले की तरह अब टाइम भी फिक्स नहीं था कि घडी में 6 7 8 9 10 11 12 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 बजे और फोन बजा पर वो बातें तो 2009 की थी और अब 2012 था। वक़्त कहाँ थमा है कभी किसी के लिए भाई। मोहित पीछे चलता गया, रूही आगे बढ़ती गयी। बच्चा बड़ा हो रहा था रूही का, वक़्त नहीं मिलता था रूही को और मोहित के पास वक़्त के अलावा और कुछ था नहीं ।
कंपनी ने उसको जनरल मैनेजर बना कर भेजा था। साथ में गाड़ी, आलीशान घर और सब कुछ जो किसी का भी सपना हो सकता है पर नहीं मिली तो रूही। वैसे भी किसी के चाह लेने से अगर मोहब्बतें परवान चढ़ गयी होती तो इतनी ग़ज़लें नहीं लिखी जाती, शायरी नहीं कही जाती। इन टूटे हुए दिलों, झूठी मोहब्बतों ने ही कितनों को ज़िंदा रखा आज भी दीवानो के दिलों में।
वक़्त गुज़रा और फिर आया रूही का जन्मदिन। दस्तूर के मुताबिक कॉल किया रूही को, नहीं लगा, फिर लगाया लेकिन नहीं लगा। मोबाइल नेटवर्क भी काम नहीं कर रहा था। रात भर सारे शहर के चक्कर लगाता रहा कि कैसे भी बात हो जाए, नहीं हुई और फिर सुबह हो गयी। जब ऑफिस नहीं पहुँचा दोपहर तक तो बाबू का फ़ोन आया।
“बाबू” – नाम संजीव रॉय, कोलकाता निवासी, अकेली जान, पर चलन के मुताबिक उनको बंगाली बाबू ही कहा जाता था। मोहित के साथ ही काम करता था पर धीरे-धीरे 18 घंटे का साथी हो गया। ऑफिस में साथ, ऑफिस के बाद भी साथ, जहाँ दोनो के बीच में एक कॉमन चीज़ थी और वो थे किशोर बाबू। मोहित को एक दोस्त मिल गया था। बाबू के साथ जब कभी दारूबाजी ज्यादा हो जाती तो बाबू थोड़ा सेंटी हो जाता था,एक ही बात कहता था, “साहब आप बोलते कुछ हो और आँखें कुछ और बोलती हैं। साहब ख़ुशी के आँसू तो देखे है पर मुस्कुराते हुए आँसू आ जाये कभी नहीं देखा।” मोहित एक शानदार कहकहा लगाता था, “चल इसी बात पर एक और बना।” फिर एक बनता था, फिर एक और बनता था और फिर? फिर बात बन जाती थी या यूँ कहिये बात टल जाती थी।
हाँ, तो बात रूही के जन्मदिन की हो रही थी । बाबू का फ़ोन आया और फिर बाबू भी आ गया। मोहित ने दरवाज़ा खोला, बाबू ने मोहित का हाल देखा तो घबरा गया। हाथ पकड़ा और पूछा, “साहब आप ठीक है ना?” उस दिन मोहित फिर रोया, बच्चे की तरह फूट फूट कर रोया, रोता रहा, रोता रहा। बाबू बैठा रहा, कुछ नहीं बोला पानी लाया, पिलाया और चुपचाप बैठा रहा। मोहित रोते रोते जब थक गया तो वहीँ पर सो गया। जब उठा तो रात हो चुकी थी। बाबू ने उसके लिए उसकी पसंद का खाना बनाया था।
टेबल पर रात की तैयारी थी, जगजीत साहब गुनगुना रहे थे, “तुम जो इतना मुस्कुरा रहे हो”
और मोहित फिर हँस दिया, उठा, बाबू को गले लगाया और बोला 5 मिनट दे अभी आया और 5 मिनट बात महफ़िल सज चुकी थी । उस रात रूही पहली बार बाबू के सामने आई । कब सुबह हो गयी, कब खाना ठंडा हो गया, कब शराब ख़तम हो गयी, कब आँसू बहने बंद हो गए, किसी को पता नहीं चला ।
2012 ख़तम होने को था ।
मोहित इस बीच में दो बार इंडिया हो कर आया पर रूही को फ़ोन नहीं किया ।
मोहित ने एक दिन पूछा, “रूही तुम्हरी ईमेल है कोई?”
रूही ने कहा “नहीं, क्यों?”
मोहित ने कहा “अगर मैं मेल्स लिखूँ तो तुम चेक कर सकती हो?”
रूही ने कहा, “कर लूँगी“
मोहित ने ईमेल एड्रेस बनाया और फिर शुरू हुआ मेल्स का सिलसिला। इस बीच रूही की ज़िन्दगी कई करवट बदल चुकी थी। पति का बिज़नेस थोड़ा गड़बड़ा चुका था। घर बदल लिया गया था, एक बच्चा और हो चुका था। बच्चे बड़े हुए तो मोहित से दूरियां बढ़ने लगी थीं। पर नहीं बदली थी तो रूही की दिल्लगियाँ और शोख मिजाजी। सब जारी थी। उम्र का क्या है साहब दिल जवान होना चाहिए। मोहित दस मेल्स लिखता, एक का जवाब आता पर मोहित को तसल्ली थी । बातें वही होती थी। रूही चाहती थी कि मोहित की पारिवारिक ज़िन्दगी सँभल जाए । वो हमेशा दुआ करती थी कि मोहित और शबाना फिर एक हो जाएँ । हमेशा मोहित को मुस्कराते हुए देखना चाहती थी । तो क्या गलत था इसमें? बस प्यार ही तो नहीं करती थी वो मोहित से। या करती थी?
जनाब, आप अभी भी नहीं समझे। वो तो पहले ही मोहित को दिल दे चुकी थी। मोहित ने अपने दिल को सँभाल लिया था। अपने साहब को वादा करके आया था कि उनका नाम खराब नहीं होने देगा। दुबई की रंगीनियाँ उसको रास नहीं आ रही थी। जब कभी बोर हो जाता तो मस्कट हो आता, शारजाह भी गया। पुराने वाकिफ थे कुछ वहां,उनसे मिलता । महफ़िल सजती और फिर अपने काम में मशगूल।
मोहित का काम भी बढ़ने लगा था। रूही से फिर नजदीकियां बढ़ने लगी थी। अब रूही की हफ्ते में 2 मेल्स आती थी। फिर रूही ने रोज़ जवाब देना शुरू किया और फिर एक दिन रूही ने कहा, “तुम अपना नम्बर क्यों नहीं देते। अगर मेरा कभी मन हो तो मैं बात ही नहीं कर सकती तुमसे?”
मोहित को हँसी आ गयी,अच्छा लगा उसे ????
बहुत अच्छा लगा, फिर डर गया और हँस के ही टाल गया था उस दिन इस बात को।
नम्बर पूछने में रूही को 2 साल लग गए थे।
2014 की बात थी ये ..
नहीं दिया मोहित ने नम्बर, रूही ने फिर पूछा और मोहित फिर टाल गया।
रूही समझ गयी , रूही अब दिन में दो बार मेल्स लिखती थी,सुबह और रात को।
अपना पूरा हाल बताती, मोहित का पूरा हाल पूछती।
शबाना और इंद्र इस बीच दुबई आ गए। शबाना में थोड़ा बदलाव आ चुका था।
उसको शानदार घर चाहिए था, मिल गया।
गाड़ी चाहिए थी, मिल गयी।
मोहित चाहिए था , नहीं मिला ।
मोहित को रूही चाहिए थी , नहीं मिली।
रूही को भी मोहित चाहिए था , नहीं मिला।
हर मेल्स में यही होता कि अपना घर ठीक कर लो।
मोहित कहता कि रूही मैं भी यही चाहता हूँ।
रूही बोलती, तुम दिल से कोशिश नहीं करते हो ,एक बार करो ना।
मोहित फिर कोशिश में लग जाता।
कुछ दिन घर का माहौल ठीक रहता और फिर वही ढाक के तीन पात।
फिर एक दिन रूही ने अपनी कुछ फोटो भेजी।
चार साल बाद मोहित ने रूही को देखा थाउस दिन और कुछ भी नहीं बदला था, ना रूही और ना उसकी आँखें।
उन आँखों में “मोहित” था, बड़ी बड़ी काजल वाली आँखों से झांकता मोहित।
फिर आया बारिशों का मौसम, साल वही था 2014। ये जो बारिशों का मौसम होता है कभी किसी रुलाता है तो कभी किसी को हंसाता है। ये बारिश भी बस रूही सी थी। थम गई तो बस थम गई और जो बरस गई तो बरस गई और कभी आ जाती थी यूँ बेहिसाब जैसे कोई आफताब सा हो। कभी चुप सी रहती थी और कभी गुम सी बैठ रहती थी।
ये रूही थी या बारिश कुछ समझ ही नहीं आता था , बस आती थी तो कांटे बन के चुभ ही जाती थी।
मोहित को बारिशों से नफरत सी हो गयी थी। कहाँ तो बारिश शुरू होते ही साथ, एक ज़माने में , मोहित अपनी कार लेकर लॉन्ग ड्राइव पर निकल जाता था और अब वो घर या ऑफिस से कदम भी बाहर नहीं निकालता था।ऑफिस की खिड़कियों पर परदे चढ़ा देता कि कहीं एक बूँद भी बरसती बारिश न दिख जाए । म्यूजिक तेज़ कर देता कि कहीं उन बरसती हुई बूंदो की आवाज़ न कानो में पड़ जाए।
ज़हर बन चुकी थी बारिशें मोहित के लिए।
मोहित ऑफिस से निकला ही था कि बारिश शुरू हो गयी और पता नहीं क्या सोच कर मोहित ने रास्ते में कार रोकी, स्टारबक्स से कॉफ़ी ली, सिगरेट जला ली।
और फिर मिलाया रूही का नंबर।
“मैं आज तुमको बहुत याद कर रही थी”
मोहित इन दिनों रूही से कम ही बात करता था।
मोहित हंसा, “क्या हुआ मैंडम जी” क्या गुस्ताखी हो गयी खादिम से? रूही कुछ नहीं बोली,
मोहित ने फिर पूछा, “ क्या हुआ है ?”
रूही की आवाज़ भर्रायी हुई थी,
बोली, “कुछ पुराने किस्से है, बहुत सता रहे हैं,कुछ फैमिली प्रोब्लम्स है , परेशान हूँ बहुत”
उस दिन काफी सालों बाद करीब तीस मिनट तक मोहित और रूही की बात हुई।
मोहित सुनता रहा और रूही बोलती रही।
जब रूही फ़ोन रख रही थी तो काफी नार्मल हो चुकी थी।
जाते जाते बोली , सुनो ,
मोहित ने कहा “हाँ, बोलो”
“इतने सालो में मेरी एक बार भी याद नहीं आई?”
“एक बार भी जानने की कोशिश नहीं की कि तुम्हारे जाने के बाद मैं जी रही हूँ या मर रही हूँ?”
“तुम इतना कैसे बदल गए?”
“तुम इतना पत्थर कैसे बन गए?”
“सब कुछ मेरे मुंह से ही सुनना था तुझे ना?”
“आँखें नहीं पढ़ पाया आजतक?”
और फ़ोन काट दिया ।
ये वाली बरखा,बहार बन के आई थी ,मोहित कार से निकला, साइड में खड़ा रहा ,भीगता रहा ,भीगता रहा जब तक आँसू सूख नहीं गए । सारा कोटा उस दिन बाहर निकल गया । घर आया ,ड्रिंक बनायीं और बालकनी में आकर फ़ोन किया । एक दिन में दूसरी बार मोहित का फ़ोन बहुत सालों बाद आया था ।
एक ही रिंग में रूही ने फ़ोन उठाया ।
“क्या हुआ , सब ठीक तो है न?”
मोहित ने कहा “हाँ, रूही, सब ठीक हो गया अब”
“क्या हुआ, तुम पहेलियों में बात न किया करो”
“सब ठीक है ना?”
“इंद्र ठीक है?”
“शबाना ठीक है?”
मोहित बोला, “हाँ रे, सब बढ़िया है”
“तुझे हुआ क्या है रूही?क्यों इतनी डल थी शाम को ?”
रूही जब तक संभल चुकी थी, उसको अपने इमोशंस से पार पाने में उसको सिर्फ एक घंटा लगता था, बोली, “अरे कुछ नहीं बे, सब मस्त है, अभी थोड़ा बिज़ी हूँ फिर बात करती हूँ”
“चल ठीक है” मोहित ने कहा
अब मोहित की बारी थी,
“सुनो रूही,” मोहित ने कहा
“हाँ बोल”
“मुझे तुम्हे देखना है”
“क्या” रूही सकपका गयी , हिल गयी ।
“ऐसे अचानक क्या हुआ?”
“बस, मिलना है, रूही”
“हुआ क्या है रे?”
“कब आऊं मैं?”
“क्या हुआ है तुमको ?”
“कुछ नहीं” मोहित ने कहा
“Will call u later”
मोहित अन्दर आया, एक ड्रिंक और बनाया,
“जो शाम को रूही ने बोला था वो सच था या जो अभी बोल रही थी वो सच था”
ये रूही थी ।
ये थी रूही?
या वो थी रूही?
थी क्या रूही?
रूही तो थी एक अजब पहेली ।
मोहित इतनी दूर भी नहीं गया था कि रूही की आवाज़ अनसुनी कर देता और उस आवाज़ को जिसने पहली बार पुकारा था । पर इस बार वो अपने को धोखा नहीं देना चाहता था । मोहित ने फिर से कदम बढाया और आगे आने वाले तीन महीने बेनागा रूही से बात करता रहा ।
2014 से 2016 दो साल कब निकल गए पता ही नहीं चला दौनो को । मोहित रोज़ सुबह एक कॉल करता ऑफिस जाते हुए फिर एक दोपहर में और एक रात को और सुनता रहता रूही को बस ।
इंतज़ार करने में अपना अलग ही मज़ा होता है साहब, बहुत उम्मीदे पाल सकते हो आप और मोहित तो इंतज़ार करने में कोई जैसे डिग्री कर के बैठा था ।
उम्मीद थी, जो कहीं थी नहीं पर मोहित को थी । वो रूही की सुनता रहा और अपनी छुपाता रहा ।
फिर एक एक दिन रूही की लम्बी सी मेल आई,
“मैं तेरे से कुछ भी छुपाउंगी तो पाप पड़ेगा मुझे, तेरे को देख कर तुझसे सब बताने का मन है रे”
रूही ने उस दिन बताया कि शादी से पहले एक शख्स आया था उसकी ज़िंदगी में और वो रूही का पहला और सच्चा प्यार था । पंद्रह साल से जानती थी उस शख्स को, बचपन से कब बड़े हो गए साथ में पता ही नहीं चला था पर घर वाले नहीं माने रूही के उस रिश्ते के लिए और रूही की रोशन से शादी कर दी थी । हाँ, रूही की शादी एक मजबूरी थी, घर वालों की वजह से अपने पंद्रह साल के प्यार से मुँह फेर कर उसने शादी कर ली थी पर दिल अभी भी वहीँ था । वो गाहे बगाहे मिल लेते थे ।
और भी बहुत कुछ रूही ने ने बताया । बहुत प्यार करती है वो उस शख्स को ,रोशन बस नाम का पति है ।
मोहित ने सब पढ़ा, एक बार दो बार, नार्मल रहने की कोशिश की, एक अच्छा सा प्यारा सा जवाब दिया, एक झूठा जवाब ।
“मुझे अच्छा लगा रूही कि तूने सब बता दिया, दोस्तों में कुछ भी छुपाया नहीं जाता”
उसने अपने आप को ढूँढने की कोशिश की रूही की बातों में ,दिखता था, वो कहीं कहीं । काफी था ,सब कुछ ख़तम नहीं हुआ था अब तक , शायद या पता नहीं ।
सर्दी आ चुकी थी , साल 2016 के आखिर का था शायद , महीना याद नही, तारीख याद नहीं
“रूही, मैं मोहित बोल रहा हूँ ”
वही रूटीन कॉल थी, रूही को लगा ।
“कल मिल सकती हो मेरे से?”
ये झटका वही पुराना सा था , पहली बार मिलने जैसा ।
“तुम इंडिया में हो?”
“नहीं रूही पर मिलना है”
“कब?”
“कल”
“आ पाओगे?”
“हाँ क्यों नहीं”
“कुछ काम है क्या?”
“किसी काम से कब आया हूँ रूही मैं,बस तुमसे मिलने आ रहा हूँ । मिल पाओगी?”
“तुम सच में आ रहे हो?”
“हाँ बाबा, सच में”
“कल मिलता हूँ शाम को, अगर तुम कहो तो”
“आ जाओ ना, मेरा भी बड़ा मन है तुमको देखने का”
“कहाँ आओगे?”
“होटल आऊँ मैं?”
“नहीं रूही, बाहर मिलेंगे”
“वही अपनी पुरानी जगह”
“कोस्टा काफ्फी”
“टाइम 6.30”
मोहित ने टिकट बुक करवाया, पहुंचा, वेट करता रहा, करता रहा, करता रहा और रूही नहीं आई ।
नहीं आ सकी थी रूही ,शायद हिम्मत जवाब दे गयी थी रूही की ।
हिम्मत न टूटे तो पहाड़ भी तोड़ देती है और अगर टूट जाए तो हलकी से आहट भी उसे चकनाचूर कर देती है । मोहित बिल दे रहा था काउंटर पर, तब किसी ने उसके पास आकर कहा,
“कैसे हो जनाब?”
“रूही????????????????????”
रूही आ गयी थी ….
आ गयी थी रूही ….
मोहित अजीब लग सकता है, लेकिन यथार्थ यही है, ऐसे ही होता है। नमन आपको