रूही – एक पहेली: भाग-24
“उठिए भी अब, बस बहुत हुआ, ये क्या बात हुई?” राधा पीछे खड़ी हुई थी।
रात घिरने लगी थी, मोहित ने अनमने मन से डायरी बंद और उठ गया। डायरी को अपने सीने से लगाए हुए था।
“डायरी है ये, रूही नहीं है” राधा फिर बड़बड़ाई।
मोहित कुछ नहीं बोला। वो अभी भी होली के रंगो में रंगा हुआ था। एक मुस्कराहट थी चेहरे पर जो राधा को बार-बार कुढ़ाए जा रही थी। खाना फटाफट खाया, बिरयानी बनाई हुई थी राम सिंह ने। ये बताना बेवकूफी होगी कि मोहित को बिरयानी भी बेहद पसंद थी। राधा, दीपाली और भानु के जाने के बाद फिर गुमसुम सी रहने लगी थी और मोहित के सामने आने में कतराती सी थी। जवाब देने में, पूछने बताने में, कोशिश करती थी कि मोहित से आमना-सामना ही न हो।
रात को खाने के बाद मोहित का मन था कि राधा से कुछ बात करे।
“मेमसाब कहाँ हैं रामसिंह?”
“सो गयीं मालिक, कुछ लाऊं आपके लिए?”
“ना-ना”
मोहित थोड़ी देर लॉन में टहलता रहा। आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे, सेकड़ों, लाखों, अरबों।
बस एक वही नहीं था जो मोहित को देखना था,चाँद नहीं था आज।
“कहाँ होगा वो?”
“कहाँ होगी रूही?”
“आखिर क्यों किया था रूही ने मोहित के साथ ऐसा??”
मोहित ने झटक दिया सर को। जब भी रूही के बारे में दिमाग कुछ बकवास करता था, दिल मोहित का डांट कर चुप करा देता था। ये लड़ाई वो बरसों से लड़ता चला आ रहा था और अपने दिल को जिताता आ रहा था। थोड़ी ठंडक सी बड़ी तो मोहित शेड में आकर बैठ गया । सिगरेट निकाली, फिर पता नहीं क्या सोच कर डिब्बी में वापिस रख दी।
“राधा नाराज़ थी मोहित से?, पर क्यों? और राधा उसकी ज़िन्दगी में कर क्या रही थी और क्यों कर रही थी?”
कई सारे जवाब थे जो अभी भी अनसुलझे थे। मोहित आकर अपने कमरे में लेट गया। आठ भी नहीं बजे थे अभी पर पहाड़ों की राते तो शाम छःबजे ही रात के बारह बजा देती थीं। पर्दा पड़ा हुआ था कमरे का,
सिर्फ सन्नाटा और कभी-कभी बीच में पत्तों पर पानी की बूँदें टपकने की आवाज़ और कभी झींगुर का पॉप संगीत और फिर मेंढक के कुनबे की आपस में गप्पों की आवाज़।
आज पहली बार उसे कहीं और कुछ भी आवाज़ सुनाई दे रही थी। कुछ ढोलक मंजीरे और कुछ गाते हुए लोग। कान लगा कर सुनने की कोशिश की, नहीं सुनाई दिया फिर वो खिड़की के पास आकर सुनने की कोशिश में लग गया। शायद शादी ब्याह था नीचे गांव में कहीं और चूँकि बारिश नहीं थी आज तो धीमे-धीमे कानों तक पहुँच रहा था। कोई लोक गीत था, ढोलक की ताल, हारमोनियम और शायद झांझर रही होगी।
“तारो लगाए कुची लै गए, बलम बम्बई को चलै गए”
“न कछू कै गए, ना कछू सुन गए, हम से तो तीरथ की कै गए।
बलम बम्बई को चलै गए। ”
बस इतना ही सुनाई दिया कई बार में मोहित को, मुस्कुरा दिया। मोहित ने आँख बंद कर के सोने की बहुत कोशिश की, नहीं हुआ। उठा, पर्दा खोल कर आराम कुर्सी पर बैठ गया। साइड लैंप जलाया और रूही को आवाज़ दी।
Thank you…. Is chapter to shuru hote hi khatm ho gaya
जब आप पहाड़, वहाँ के प्राकृतिक वातावरण और गीत-संगीत का वर्णन करते हैं, आनंद आ जाता है, जैसे आपके आँखों से हम भी देख पा रहे वह दृश्य और कानों से सुन पा रहे हो “बलम बम्बई को चलेै गये” 🥰
अगले भाग का इंतजार रहेगा, समय से पोस्ट कर दिया करिये 🙏