रूही – एक पहेली: भाग-20

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शाम हो रही थी,हलकी सी कुनमुनी सी ठण्ड की चादर घेरने लगी थी शाम को। यहाँ-वहाँ देखा, कोई नहीं दिखा, सोचा रामसिंह को आवाज़ लगाए फिर टाल दिया। घड़ी में निगाह डाली, शाम के चार बजने वाले थे । कॉफ़ी का सा मन हुआ। फ्लास्क की तरफ हाथ बढ़ाया, खोल कर देखा, खाली था। हाथ दोनों आपस में रगड़े जिस से थोड़ी गर्मी सी आये पर फ़र्क़ नहीं पड़ा। फिर पीछे मुड़ ककर देखा कि शायद राधा दिख जाए पर दरवाज़े बंद थे। राधा भी शायद सो गयी थी। रामसिंह शायद पीछे रात के खाने की तैयारी कर रहा था । उठने को हुआ तो पीछे से दरवाज़े खुलने की आवाज़ आई। राधा चली आ रही थी उसकी ओर। जींस में पहली बार देख रहा था राधा को वो। एक लम्बी सी ढीली सी सफ़ेद शर्ट पहने हुए थी या डाले हुए थी कुछ समझ नहीं आ रहा था। बाल गोलमोल से बाँध के एक ढीला सा जूडा बनाए हुए।
जिस रात को भानु आया था उस रात से मोहित को राधा कुछ अलग सी लगने लगी थी।
उसकी आँखें , उसकी आवाज़ , उसके बोलने का तरीका , क्या तो भी था जो अपना सा था , मोहित ने सर को झटका।
“पागल न बन मोहित, ये राधा है”
राधा ने पास आकर फ्लास्क बदला, शाल मोहित के हाथ में दी और कुछ बुदबुदाती हुई चली गयी।
भानु और दीपाली के जाने के बाद राधा का बोलना फिर कम हो गया था। सामने नहीं पड़ती थी ज़्यादा मोहित के। मोहित को सुनाई नहीं दिया कि राधा क्या कहती हुई गयी थी।
“कुछ कहा आपने?”
राधा बिना जवाब दिए हुए चली गयी अंदर और फिर लौट कर आ गई।
“अगर फुर्सत मिल जाये इस मुई रूही से तो बता दीजिएगा कि रात को क्या खाना है?” गुस्से में थी या गुस्सा करना चाह रही थी राधा?
मोहित को हंसी आ गयी , डायरी बंद की, गुलाब वहीं लगाया और उठा।
“भूख नहीं है आज”
“हाँ-हाँ, क्यों होगी, इस मुई से ही पेट भर लीजिए” कह कर फिर अंदर चली गयी , वाकई गुस्से में थी राधा तो । होने दो, मोहित को राधा के गुस्से से ज़्यादा रूही की मुस्की से मतलब था। गुलाब हाथ में लिया डायरी से बाहर, शाल ओढ़ा, एक कप कॉफ़ी डाली और कुर्सी घसीट के थोड़ा मैदान की ओर कोने की तरफ ले आया। अब फिर से धूप थोड़ी सी मोहित पर पड़ने लगी थी। कभी चेहरे से हट कर डायरी पर आ जाती कभी मोहित के चेहरे पर।
डायरी खुल चुकी थी ….

15 फरवरी 2017

लौट के जिस दिन दुबई आया तो किसी बड़े हंगामें की उम्मीद थी उसे शबाना से पर उम्मीद के मुताबिक कुछ नहीं हुआ। शबाना शांत थी, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था, ना सवाल न कुछ। कुछ ना पूछा उसने ना मोहित ने बताया कि अचानक ऐसा कौन सा काम अचानक आ गया था कि सालों बाद जब शबाना ने हाथ बढ़ाया था तो मोहित हाथ झटक कर चला गया था। कौन सी आँख मिचौली खेलने पर उतारू था अब ऊपर वाला?

रूही ने मोहित का दीवानापन फिर देखा था और वो अब लगता था सारी डोर तोड़ देना चाहती थी। रूही भी मोहित का अक्स ही थी, जो पाना होता था, पा कर ही दम लेती थी। उसके लिए जो सही था बस वही सही था। कहा करती थी अक्सर मोहित से,
“मैं अपनी सबसे सबसे ज़्यादा फेवरिट हूँ”
और थी भी ऐसे ही , पंख जो क़तर गए थे रूही के, मोहित ने फिर जोड़ने शुरू कर दिए थे। रूही की साँसे लौटने लगी थी । मोहित को वो अपना हार्ट स्पेसलिस्ट कहती थी कभी-कभी मज़ाक में।
दोनों के बीच से भाई का साया हटने लगा था।
मोहित को महसूस होता था कि भाई जा चुका है पूरी तरह अब रूही की ज़िंदगी से। रूही के वो टेक्स्ट अब नहीं आते थे कि,
“भाई के पास जा रही है”
जाती भी थी तो बता कर जाती थी कि कहाँ जा रही है। फ़ोन बंद नहीं होता था रूही का अब और भाई के साथ अगर होती थी भी तो मोहित को टेक्स्ट करती थी। मोहित इन सब के मायने समझता था। अच्छी तरह से समझता था। रूही को समझाना आ गया था। रूही मोहित को समझने लगी थी। मोहित अपनी ज़िंदगी के सबसे खुशनुमा पल जी रहा था। लगता था पहेली सुलझने लगी थी। इतने सालों से रूही ने कई बार कोशिश की थी कि मोहित एक बार कम से कम अपने जन्मदिन पर रूही से मिलने आये पर मोहित हर बार टाल जाता था। कहता था,
“वो अब ज़िंदा ही नहीं तो क्या जन्म दिन मनाये”
दिन भर अपने जन्मदिन वाले रोज़ अपने को बेइंतिहा बिज़ी रखता था। सुबह से लेकर रात तक मीटिंग्स और फिर देर रात को घर आता था, इन्द्र को लेकर ड्राइव पर निकल जाता था। उम्र के साथ इन्द्र दोस्त बनता जा रहा था। अपनी की हुई ग़लतियाँ इन्द्र को बताता था और इन्द्र चुपचाप सुनता रहता था।
धीरे-धीरे इन्द्र मोहित का दोस्त बनने लगा।

मोहित उस दिन बेहद बिज़ी था सुबह से, रूही के कई टेक्स्ट आ चुके थे कि कॉल करो, कॉल करो पर मोहित का फ़ोन साइलेंट पर था। लंदन से कोई क्लाइंट आया था और उसके साथ कोई डील फाइनल होने के कगार पर थी। दोपहर में जब मोहित ने ढेर सारे टेक्स्ट देखे तो जल्दी से फ़ोन किया। रूही ने उठाया,
“कहाँ है रे तू?”
“यार मीटिंग्स थी सुबह से”
“तो जवाब तो देता न”
“यार नहीं देखा मोबाइल”
“हम्म्म्म्म”
“बोल क्या हुआ बब्बल?”
“अब कुछ नहीं तू काम कर, मेंरे से बात ना कर, जब भी मुझे तेरी ज़रुरत होती है तू नहीं होता है”
“हुआ क्या है यार?”
“कुछ नहीं”
“बता न प्लीज क्या हुआ बब्बल?”
“कुछ नहीं कुछ नहीं कुछ नहीं, तू अब काम कर ले अपना”
रूही ने फ़ोन काट दिया । कभी-कभी पागल सी हो जाती थी रूही।
“मेंन्टल केस है क्या ये लड़की?” अब मोहित को भी गुस्सा आ गया।
मोहित ने दोबारा फ़ोन किया, रूही ने फ़ोन काट दिया ,फिर किया, फिर काटा। मोहित के पास इतना टाइम नहीं था कि मान-मुनव्वल करता। सोचा बाद में मना लेगा। एक घंटे बाद जब फ्री हुआ तो कॉल किया। फ़ोन बंद था , फिर ट्राई किया , आउट ऑफ़ रीच था। शाम होते-होते मोहित का दिमाग सुन्न होने लगा था । गुस्सा खत्म हो गया था और परेशानी बढ़ने लगी थी।
“कहाँ फ़ोन करे?, किस से पूछे?” टेक्स्ट सारे फेल्ड , फ़ोन हाथ में लिए बैठा रहा रात तक।
अचानक …
पिंग ..
पिंग …
पिंग ….
पिंग …
सारे टेक्स्ट डेलिवर्ड एक साथ , फिर फ़ोन किया तो ऑन था। घंटी जाती रही ,नहीं उठाया रूही ने।
टेक्स्ट आया मोहित के फ़ोन पर “मेरे से अब कभी बात न करना”
हुआ क्या था आखिर ? मोहित ने फ़ोन किया फिर , फ़ोन बंद और नतीजा वही।
मोहित दूसरे दिन सुबह आठ बजे पुणे एयरपोर्ट के बाहर खड़ा था। ऑफिस बैग हाथ में, बाल बिखरे हुए, आँखे सोई-सोई सी। रात घर नहीं गया था सीधे एयरपोर्ट पहुँचा था, पहली फ्लाइट जो मिली वो दिल्ली की थी, वहाँ से सीधा पुणे पहुँचते-पहुँचते सुबह के आठ बज गए थे।

बाहर आकर फ़ोन किया रूही को पीसीओ से, फ़ोन ऑन था ,रूही ने फ़ोन उठाया।
“सुनो तो, प्लीज फ़ोन मत काटना, मेरी बात तो सुनो”
रूही चुप थी । ये भी ना पूछा उस कमबख्त ने कि मोहित पुणे में क्या कर रहा था ।
“मैं पुणे में हूँ बब्बल”
“दिख रहा है मुझे नंबर” क्यों उखड़ी थी इतनी रूही ??
“हुआ क्या है रूही?”
“बात ना कर मुझसे”
“प्लीज ऐसे नहीं, मिल मुझे मंदिर पर”
“मैं नहीं आ सकती स्वीटी” स्वीटी बोला था उसने, मोहित ने चैन की साँस ली थोड़ी ।
“क्या? नहीं आ सकती तू क्यों?”
“नहीं आ सकती बस काम है”
“ऐसे कैसे बब्बल बात तो बता ना”
“……….” बात कुछ ज़्यादा बड़ी थी ।
“अच्छा सुन”, अब मोहित रुआंसा सा हो गया, हथेली पर पसीना आ सा गया था ।
आवाज़ डूबने लगी ,
“एक काम कर एयरपोर्ट आजा, बात मत करियो, मैं एक बार देख लूँ। फिर बस चला जाऊंगा । शायद तू फिर से जा रही है बब्बल, समझ रहा हूँ । और इस बार भी तेरे स्वीटी को नहीं पता कि बात क्या है”
मोहित बोलता गया और जब चुप हुआ तो आवाज़ भर्रायी हुई थी। रूही ने किसी बात का जवाब नहीं दिया ।
“आ जाएगी न तू बब्बल?”
“आती हूँ”
“हुआ क्या है बब्बल?” फ़ोन काट दिया रूही ने।

पहेली सुलझने को होती थी कि फिर उलझ जाती थी ।
ऊपर वाले ने एक फिर अंगड़ाई ली ,गला साफ़ किया,चेहरे पर आई मुस्कराहट को छुपाया, डुगडुगी उठाई
और आँख बंद कर ली। कौन सवाल कर सके है ऊपर वाले से आजतक और मोहित तो फिर भी ऊपर वाला का सबसे प्यार बच्चा था , सबसे प्यारा खिलौना।

मोहित स्टारबक्स गया, चेहरा थोड़ा सही किया। दिल को सम्भाला, गहरी साँस ली। कॉफ़ी आर्डर की और स्मोकिंग सेक्शन में आकर बैठ गया। सुबह सब खाली पड़ा हुआ था।
काँच की खिड़की के बाहर से बारिश की बूँदें दिख रही थीं। बे मौसम की बारिश हो रही थी बाहर भी और मोहित के अंदर भी।
काँटे बरस रहे थे आज बूंदो की जगह। उसने सोच लिया, अब कुछ नहीं पूछेगा रूही से। उसके जाने का वक़्त फिर से आ गया था। रूही ऐसे ही आँधी की तरह से आती थी और तूफ़ान की तरह से सब कुछ उजाड़ कर मोहित का चली जाती थी। पर इस बार मोहित उजड़ने के लिए तैयार नहीं था ,पक्का कर लिया था उसने । टेक्स्ट आया,
“बाहर हूँ कार में” मोहित बाहर आया , कार मैं बैठा । रूही ने शायद सुबह से मुँह भी नहीं धोया था ।
“क्या हुआ था यार?????” पाँच मिनट तक दोनों चुप बैठे रहे ।
“बोलो”
“कुछ नहीं बब्बल, क्या बोलूँ ।
“क्यों आये हो आज?”
“तेरा फ़ोन बंद था”
“तो?”
“अरे हुआ क्या है बब्बल,” मोहित से नहीं रहा गया भर्रा गयी आवाज़, हाथ पकड़ लिया रूही का उसने।
“गाड़ी ड्राइव करने दो शहर है ये” मोहित सन्नाटा खा गया एक दम से ।
“रौशन आज शहर में हैं । कैसे निकली हूँ घर से बाहर मैं ही जानती हूँ।”
“मैं यहाँ कार नहीं रोक सकती, कहीं बैठ कर बात करते हैं”
बीस मिनट में रूही ने कार रोकी । शहर से थोड़ा बाहर की तरफ थी ये जगह।
“बहुत मुश्किलों से आई हूँ, आधे घंटे में लौट जाउंगी”
“ओएसिस पूल बार”नाम था जगह का जहाँ रूही , मोहित को लेकर आई थी।
रूही अंदर गयी मोहित पीछे-पीछे अपने कदम घसीटते हुए आ गया। पूल साइड टेबल पर जा के बैठ गयी रूही। मोहित ने कैसे भी करके सम्भाला हुआ था अपने को, पर मन कर रहा था कि फूट-फूट कर रोये। इतनी पत्थर कैसे हो जाती थी रूही अचानक? निगाह पूल पर गयी तो पूल में बच्चे और फैमिलीज़ एक दूसरे के ऊपर रंग डाल रहे थे। पानी की जगह रंग भरा हुआ था पूल में।
“ओह, होली है आज?” मोहित को याद ही नहीं था। आठ मार्च थी, होली थी, रंगो भरा दिन।
“कैसी मनहूस होली थी ये भी” जाने कितने सालों से मोहित सोचता था कि एक बार रूही को रंग दे पर कभी ना मौका आना था और ना आया और आज आया भी तो। कैसी बाजी खेलता है ये ऊपर वाला भी ? रूही मोहित को चुपचाप देखे जा रही थी, जैसे सब पढ़ लेने कि कोशिश कर रही थी।
मोहित उठ कर काँच की खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया। दोनों हाथ खिड़की पर रखे और सर टिका दिया ,रूही नहीं उठ ।

“मैम, कॉफ़ी यही पर या बाहर?” वेटर ने पूछा ।
“बाहर लगा दीजिये, कितना अच्छा सा लग रहा हैं न बाहर स्वीटी?”
मोहित का मन किया कि ज़ोर-ज़ोर से चीख मारे।
“क्या कर रही थी ये उसकी रूही?”
“क्यों?, आखिर क्यों???
“किस बात का बदला था ये?”
रूही उठी और बाहर आकर बैठ गयी पूल के बाजू में , नार्मल थी वो। मोहित आया, सामने बैठ और बोला,
“मैंने सोचा था कि कुछ नहीं कहूंगा, बस देखूंगा और चला जाऊंगा पर इन रंगो को देख कर रोक नहीं पाया बब्बल। सिर्फ इतना कहना है कि, तू तो कहती थी कि तू मेरी ज़िंदगी में मेरे सारे खोये हुए रंग लौटा देगी। और आज देख, देख आज बब्बल, मैं कहाँ खड़ा हूँ? आज सब लोग रंगो को अपनी ज़िंदगी में बिखेर रहे हैं और तू मेरी ज़िंदगी से सारे रंगो को छीन के ले जा रही है”

“क्यों बब्बल क्यों????”
“क्या किया था मैंने ऐसा?”
“प्यार किया इसलिए?”
“अपनी जान से ज़्यादा चाहा इसलिए?”

बोलते बोलते मोहित चुप हो गया। आँख से आँसू आने नहीं दे सकता था, रूही ने कसम दी थी और रूही ही आँसू देने वाली थी। ऊपर आसमान की तरफ देखा ,आँसू अंदर किये हों जैसे और ऊपर वाले से सवाल का रहा हो।
“क्यों भगवान क्यों??”
“आखिर मैं ही क्यों??”

“हो गयी हो डायलॉग बाजी तो मैं ज़रा वाश रूम हो आऊं और कुछ कहना है तो वो भी कह लो आज” एक दम से सपाट आवाज़ में रूही बोली ।

1 thought on “रूही – एक पहेली: भाग-20

  1. अजीब पहेली है रूही… कुछ भी समझने ही नही देती है कि वह चाहती क्या थी… ऊपर से राधा की नाराजगी… कहानी नदी सी बहती जा रहीं हैं और जैसे – जैसे आगे बढ़ रही है वैसे – वैसे नये-नये स्वरूप अंगीकार कर रही है… लेकिन अपने शीर्षक “रूही-एक पहेली” से जरा भी नहीं भटकती… अगले भाग का इंतजार रहेगा… 🥰

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