रूही – एक पहेली: भाग-10
घर पहुँचा, इंद्र जाग रहा था, थोड़ी देर गप्पें मारी और अपने रूम में चला गया मोहित। एक पेग बनाया फिर अचानक याद आया फ़ोन तो एयरप्लेन मोड पर ही था ,ऑन किया,
पिंग पिंग पिंग पिंग पिंग पिंग……
दर्जनों मैसेजेस थे ।
“गुस्सा हो स्वीटी?”
“i am sorry”
“तुझे पता है न रे कि मैं कहाँ फंसी हुई हूँ?”
“मेरा बहुत मन था आज तेरे साथ रहने का”
बहुत सारे और आखिर में…..
“सुन स्वीटी, मन नहीं भरा मेरा, कब आएगा रे अब तू???” मोहित ने रिप्लाई नहीं किया, पुणे में देर रात थी।
“उठिए मोहित, अब क्या दिन भर रूही के साथ ही बातें करते रहेंगे” राधा की आवाज़ गूँजी फिर पीछे खड़ी मुकुरा रही थी राधा।
“शाम होने को आई, आपने खाया नहीं कुछ?”
मोहित मुस्कुराया “अकेले मन नहीं हुआ, आप ने खा लिया?”
“आपका इंतज़ार कर रहे थे”
“तो अब?”
“चलिए अंदर कुछ खा लीजिए, फिर कर लीजिएगा रूही से बात”
हवा ठंडी सी हो रही थी, सूरज का कहीं नामोनिशान नहीं था, कभी बदली आती कभी कोहरा कभी हलकी से बूंदा-बादी । गीली-गीली सी जो शाम होती है वो ज़रूरी नहीं की मौसम की वजह से ही हों।
कभी कभी यादों की बूंदा-बादी भी आपकी शामों को नम सी कर जाती है।
और मज़े की बात है कि आप बारिश की बूंदो से तो हाथापाई कर सकते हैं पर यादों की बूंदा-बादी से बचने के लिए ऊपर वाले ने आजतक कोई छतरी इज़ाद नहीं की और भला हो उस ऊपर वाले का जिसने मोहित के लिए उन बारिश की बूंदों को ही मोहित की यादों में संजो दिया था। खिलौना भीगने से बचता-बचाता अंदर चला आया।
अंदर जाते ही साथ एक लॉबी थी, कुछ सोफे और बीच में एक संगमरमर की गोल मेज, दाएँ बाएँ दो दरवाजे जिन पर कुछ नक्काशी सी हुई थी। दोनों दरवाजों के बीच सामने एक पतली सी गैलरी थी जिस पर चलकर राधा मोहित को आगे ले गयी जो कॉटेज के पिछले हिस्से में खुलता था। छोटा सा किचन गार्डन और साथ में शायद किचन ही रहा होगा जहाँ से बर्तनों की आवाज़ आ रही थी।
गैलरी जहाँ खत्म हुई वहाँ दाएँ हाथ को गोल सीढ़ियाँ गयी हुई थी,रात की रानी महक रही थी उन गोल सीढ़ियों के आजु बाजू। नज़र पड़ी मोहित की तो देखा चमेली एक कोने में अपनी मासूमियत पर नाज़ करती हुई बिखरी थी। याद आया मोहित को कुछ, पास गया, कुछ फूल उठाये ,फिर मुस्कुराया और वहीं धीरे से रख दिए सीढ़ियों के कोने में। राधा आगे चली जा रही थी, वहीं से उसने आवाज़ लगाई,
“राम सिंह खाना लगा दीजिये”
उस सीढ़ियों के शायद चार या पाँच गोल चक्कर लगा कर मोहित जब ऊपर पहुँचा तो चौंक गया । उसे एहसास हुआ कि उस इलाके की वो सबसे ऊँची जगह थी। छत पर कोई चारदीवारी नहीं थी, उसे ऐसा लगा जैसे पहाड़ों के बीच में आसमान पर बादलों में खड़ा हुआ है। छत के बीच में एक छतरी के नीचे एक टेबल और दो कुर्सियां रखी हुई थी।
मोहित एक कोने में जाकर खड़ा हो गया, अंदर से कुछ बाहर आना चाह रहा था, क्या था वो जो बाहर नहीं आ पा रहा था और यहाँ एक राधा एक दूसरी पहेली बनी हुई थी।
मोहित ने अपनी जेब टटोली, नहीं मिली, पीछे मुड़ा तो राधा ने हाथ बढ़ाकर उसे सिगरेट और लाइटर थमा दिया ।
“आपको अच्छी लगी ये जगह?”
मोहित मुस्कुराया और वहीं कोने में छत से पैर नीचे लटकाकर बैठ गया, ऊपर राधा की ओर देखा, राधा समझ गयी और वही बगल में बैठ गयी।
एक बादल बिलकुल मोहित को छू कर निकल गया, मोहित घबरा गया और राधा खिलखिला कर हँस पड़ी ।
मुंह से निकला “पागल”
मोहित चौंका, राधा एकदम से उठी और नीचे भाग गयी।
थोड़ी देर में खाना लग गया था, आज बहुत दिनों बाद मोहित नार्मल खाना खाने वाला था। राजमा चावल, ढेर सारा सलाद और साथ में था मूली-गोभी का ताज़ा डाला हुआ अचार। मोहित इस बार नहीं चौंका था, उस दिन जब मटर वाला पोहा देखा था नाश्ते में तभी समझ गया था कि, राधा को उस के बारे में सब पता है। टेबल पर कोई बात नहीं हुई सिवाय इसके कि भानु आज रात नहीं आ रहा है और कल दोपहर या रात तक पहुंचेगा।
खाने के बाद राधा ने पूछा, “आप रूही के साथ यहीं बैठेंगे या नीचे जाना है?”
“यहीं बैठना चाहता हूँ मैं”
राधा नीचे चली गयी, 3 बज रहा था शाम का, मोहित ने दोबारा से रूही को आवाज़ दी, डायरी खोली
तभी बारिश का एक तेज़ झोंका आया और छतरी उड़ गयी। मोहित ने एकदम से डायरी बंद कि तभी उसमें से सूखा हुआ गजरा गिर पड़ा। अब वो गजरा नहीं था, उसके फूल एक-एक करके सारे अलग हो चुके थे, मोहित झुका धीरे से एक-एक करके सारे बिखरे हुए फूल समेंटे, एक गहरीं सांस ली और उनको फिर सहेज कर डायरी में रख दिए।
शबाना को गजरों का और काजल लगाने का बहुत शौक था। मोहित शुरू की मुलाकातों में शबाना को हर बार अपने हाथ से बने हुए गजरे देता था। रांची बहुत छोटी सी जगह थी और फूल वाले इतनी आसानी से नहीं मिलते थे। मोहित शुरू की मुलाकातों में तो ढूंढ लाता था पर बाद में उसने अपने घर पर ही चमेली लगा ली थी। शबाना से जब भी मिलने जाता, वो ढेर सारा काजल लगा कर आती और मोहित उसके बालों में गजरा लगा देता। मोहित को पढ़ने का बहुत शौक था, दुनिया भर की किताबें, कविताओं से लेकर कहानी, आत्मकथा, जासूसी नोवेल्स हिंदी-अंग्रेजी जो भी हो। शादी के बाद भी उसका शौक कम नहीं हुआ था और फिर रात को पढ़ते-पढ़ते जब सो जाता तो शबाना धीरे से किताब उठाती, अपना गजरा निकालती और उसे बुकमार्क बना कर रख देती थी।
ये गजरा जो आज मोहित की डायरी से गिरा था ये आखिरी बुकमार्क था जो शबाना ने मोहित की किताब में लगाया था उस रात।
मोहित और शबाना का जितनी तेज़ी से प्यार परवान चढ़ा था उतनी ही जल्दी खुमार उतरने भी लगा था,
आठ महीने के रोमांस के बाद, जिसमें आप चौदह बार मिले हों, ऐसा ही कुछ होना था। शायद वो प्यार नहीं ज़िद थी, विद्रोह था जिसके कारण दोनों एक दुसरे के जीवन साथी बन बैठे थे। मोहित शुरू से ही चुलबुला, हद दर्ज़ का मज़ाकिया, महफिलों की रौनक हुआ करता था।
धीरे-धीरे जब मोहित का शबाना के घर जाना हुआ तो वो माँ,बाप,भाई सभी का पसंदीदा बन गया था। उसी दौरान शबाना की फूफी की बिटिया की शादी थी जहाँ पर मोहित ने जो हंगामा किया कि वो शबाना के घर का एक अटूट हिस्सा बन गया था। वहीं पहली बार शबाना को पता चला था कि मोहित गाता भी है और ठीक-ठाक सा गाता है। कुल मिला कर मोहित एक ऐसा सपना था जो हर कुंवारी जवान होती हुई छोटे शहर की लड़कियां देखा करती है और फिर एक दिन आखिरकार वो सपना पूरा हुआ।
जब मोहित की नौकरी लगी जयपुर में तो सबसे पहले वो शबाना का हाथ मांगने गया। दिक्कतें हुई, विरोध हुआ पर बाद में आखिर कार बात मान ली गयी। शुरू के कुछ साल सब कुछ अच्छा था, मोहित के साथ पार्टीज़ में जाना, वहाँ सब के साथ मिलना जुलना, हर हफ्ते घर पर पार्टीज़ होना सब कुछ एक सपने जैसा चल रहा था। मोहित और शबाना जैसे एक दुसरे के लिए ही बने थे।
तभी एक दिन जयपुर में मोहित को होटल हॉलिडे इन से एक ऑफर आया। वहाँ के बैंड का लीड सिंगर छोड़ गया था और वहाँ के मैनेजर ने किसी पार्टी में मोहित को ऐसे ही गाते सुना था। पैसे अच्छे मिल रहे थे, शौक भी पूरा हो रहा था और नाम भी। उम्मीद थी कि होटल बड़ा है और शायद किसी फिल्म वाले ने सुन लिया तो प्ले बैक का भी चांस मिल सकता है। केवल शनिवार और इतवार को जाना होता था सो मोहित ने हाँ कर दिया। शबाना वैसे ही इन्द्र के पैदा होने के बाद बदल सी गयी थी। मूड स्विंग बहुत होने लगा था, चिड़चिड़ापन आ गया था। न कहीं जाना न कहीं आना। मोहित से ज़्यादातर हर बात पर बहस भी होने लगी थी। मोहित को ये अच्छा मौका मिला कि शायद थोड़ा शबाना से दूर रहेगा तो बात सुधरने लगेगी पर होनी तो कुछ और लिख रही थी।
मोहित को ये तो पता था कि शबाना बेहद प्यार करती है पर ये नहीं पता था कि वो जूनून है।
शबाना को कतई बर्दाश्त नहीं था कि कोई लड़की, औरत मोहित के नज़दीक भी आये। और मोहित की दिलफरेब बातें, उसके अंदाज़, उसे हर बार कहीं ना कहीं बवाल में डाल देते थे। पिछले कुछ सालो की कोई भी पार्टी ऐसे नहीं थी जिस के आने बाद शबाना ने ये ना पूछा हो,
“वो काली साड़ी वाली कौन थी”
“कब से जानते हो”
“वो इतना हँस क्यों रही थी तुम्हारी बातों पर”
हर बार साड़ी का कलर बदल जाता था पर टॉपिक वही रहता था। धीरे-धीरे मोहित ने चुप्पी साध ली, घर की पार्टीज़ बन्द, बाहर की बन्द। दूरियां बढ़ रही थी पर रात को जब मोहित अपने कमरे पर आता तो एक अलग ही शबाना दिखती थी, दुनिया भर का प्यार अपनी आँखों में समेंटे हुए, सारे गिलेशिकवे दूर करने को बेताब। शबाना को अपने इस खिलोने से बहुत प्यार था।
मोहित ने बैंड ज्वाइन किया और फिर शुरू हुआ घर देर से आना। मोहित ने समझया कि इसमें पैसे भी अच्छे हैं, मौक़ा भी आगे मिल सकता है पर शबाना को लगता था कि मोहित कुछ छुपा रहा है।
सन् 2004 दिसंबर में बैंड की एक लाइव परफॉरमेंस थी। शबाना ने ज़िद की कि वो भी जाएगी, गयी पर बीच में से ही लौट आई और मोहित के आने के बाद बहुत हंगामा किया।
“मोहित, तुम आज ये तय कर लो कि उस कलमुंही के साथ रहना है या मेंरे साथ”
मोहित उस दिन पहली बार गुस्से में आया और फिर न खत्म होने वाली बहस।
उस युद्ध का इन्द्र मूक दर्शक था। वो कलमुंही मोहित से दस या बारह साल छोटी रही होगी। फिर उस कलमुंही का पहली जनवरी को टेक्स्ट आया, नए साल की बधाई देने के लिए और जैसा कि उस उम्र की लड़कियों को शौक होता है, साथ में ढेर सारे इमोजी।
टेक्स्ट रिसीव किया शबाना ने , मोहित का नया साल दीवाली में बदल चुका था।
मोहित ने कुछ दिन बाद उस लड़की को समझाया कि उसकी वजह से क्या दिक्कतें आ रही है और टेक्स्ट न किया करे , वो मान गयी। तेरह फरवरी की रात मोहित पढ़ते पढ़ते सो गया,शबाना ने किताब उठाई और बुकमार्क बना कर गजरा लगा दिया।
चौदह फरवरी को परमाणु बम का विस्फोट हो गया। मोहित और शबाना ब्रेकफास्ट कर रहे थे तभी एक बुके आया, शबाना के नाम, मोहित ने भेजा था। शबाना की आँखों में आँसू आगये, उठी और मोहित को गले लगा लिया।
तभी टेक्स्ट आया मोहित के फ़ोन पर, शबाना ने उठाया,
“हैप्पी वैलेंटाइन्स डे सर, साथ में दो दिल बने हुए थे और चार फूल – आपकी कलमुंही”
फ़ोन उठाया और कस के ज़मीन पर दे मारा बुके तारतार हो चुका था। बहुत तमाशा हुआ। मोहित ने बहुत समझाने की कोशिश की पर शबाना कुछ सुनने को तैयार नहीं थी। रात हुई, मोहित कमरे में सोने के लिए गया , शबाना बाहर आ गई अपना तकिया चादर लेकर और मोहित समझ गया,
“रहने दो शबाना, मुझे समझ आ गया है”
फिर बहस हुई, इन्द्र जाग गया, मोहित शांत हो गया, शबाना चीखती रही। दुनिया जहाँ की सारी पुरानी बातें बोलती रही, मोहित सुनता रहा और फिर गाड़ी लेकर निकल गया। सुबह आया, शबाना अपने कमरे में थी। दीवार खड़ी हो चुकी थी।
जिस दीवार की कोई नींव नहीं होती है वो बहुत पक्की दीवार होती है । उस दीवार में शक की ईंट चुनी हुई थी, नींव भले ही ना हो पर ईंट बहुत बहुत मजबूत थी।
शबाना को पूरा यकीन था कि मोहित का अफेयर चल रहा है और मोहित ने अपना एक और भी घर बसा रखा है। दुनिया बिखर गयी थी । एक हँसती-खेलती छोटी सी ज़िंदगी जिसका कोई कसूर नहीं था । बर्बाद होने के कगार पर थी। मोहित ने तय किया कि अब कोई बहस नहीं।
मोहित ने होटल फ़ोन किया। बैंड से रिश्ता तोडा, लड़की को शबाना के सामने फ़ोन किया, बुलाया, शबाना के सामने बात की पर कोई हल नहीं। शबाना ने चुप्पी साध ली थी।
उस दिन से लेकर दिसंबर तक शबाना और मोहित के बीच कोई बात नहीं हुई । शबाना का जन्मदिन था, मोहित ने सरप्राइज पार्टी रखी, शाम को ढेर सारे गेस्ट आये। शबाना अपने कमरे से बाहर नहीं निकली।
जब बहुत ज़ोर दिया तो बाहर आई और भरी पार्टी में मोहित की जितनी बेइज़्ज़ती कर सकती थी कर के अपने कमरे में फिर चली गयी। रात को शबाना ने नींद की गोलियां खा ली। डॉक्टर को बुलाया गया, शबाना ने डॉक्टर को कहा कि मोहित ने उसे मजबूर किया है।
पुलिस केस हुआ, मोहित जब पुलिस स्टेशन से लौटा तो सब बदल चुका था।
इन्द्र ने रो रो कर आँखें सुजा ली थी । मोहित ने गले लगाया इन्द्र को और कहा,
“हिम्मत रख हीरो, तेरा बाप हूँ ,इतनी आसानी से हार नहीं मानूंगा”
मोहित ने इन्द्र को गले लगाया, सिर्फ एक बचे हुए रिश्ते को समेटा और ज़िन्दगी संभालने में लग गया। जितना जानता था शबाना को, वो समझ गया था कि सब ख़त्म हो चुका है। आने वाले साल बस अब घड़ी के सहारे कटने वाले थे । शबाना ने चुप्पी साध ली , हमेशा के लिए। वो मोहित के सामने बोलती ही नहीं थी । मोहित ने कई बार शबाना से पूछा कि वो चाहती क्या है? आखिर ऐसा क्या करे मोहित कि तीन ज़िंदगियाँ बच जाएँ । शबाना की चुप्पी ही उसका जवाब होती थी। उसकी कड़वाहट इतनी बढ़ गयी थी कि अगर बगल से मोहित निकलता तो अपने को अलग कर लेती थी कि कहीं मोहित उस से छू ना जाए।
जब मोहित घर पर नहीं होता था तो मोहित के इंतज़ार में बाहर बैठी रहती थी , आता तो चली जाती थी।
ज़िंदा रखे हुए थी शबाना अपनी लाश को , मोहित की आँखों में अपने लिए तलाशती हुई।
इस उम्मीद में कि मोहित उस से पूछे कि उस पुराने प्यार को क्या हुआ है ?
और जो मोहित पूछे कि क्या हुआ है तो बोले कि “हुआ” क्या था पहले मोहित जो अब कुछ होगा?
बस चलती जा रही थी ज़िन्दगी सब की मोहित को धीरे-धीरे वो सुनाई देनी बंद हुई और फिर दिखनी बंद हो गयी । समय का चक्र चले जा रहा था , चले जा रहा था।
फिर एक दिन …
दोपहर , दो बजे का वक़्त होगा जब मोहित के मोबाइल पर घंटी बजी थी।
सन 2008, महीना सितम्बर, तारीख याद नहीं।
“सर, मैं रूही बोल रही हूँ”
“शक” … और तीन – तीन जिन्दगी दाँव पर….