राजा

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मेरे पिता जी चतुर्थ वर्गीय सरकारी कर्मचारी थे। बड़ी बहन और भाई के बाद मैं तीसरे नम्बर की संतान थी। बचपन से पिता जी को मैंने मेरा हीरो माना और हमेशा बच्चों में उनका हीरो बनने की कोशिश में लगी रही। ब्याह को लेकर अन्य लड़कियों की तरह सपने नहीं देखे थे पर जब पिता जी ने विवाह की बात की तो मैं तैयार भी हो गयी। बड़ी बहन का विवाह धनाढ्य घर में हुआ था। पाहुन स्वभाव के अच्छे थे। उनकी सास ननद ज़रूर अत्याचार करती थीं।

मेरे विवाह को लेकर तमाम रिश्ते देखे गए। परिजनों ने पहले जो लड़का पसंद किया उसकी बिताशखाने की दुकान थी। वह दोनों हाथों में घड़ी बाँध कर मुझे देखने आया था। विवाह तय हुआ पर किसी कारण गोदभराई के बाद ही रिश्ता टूट गया।

कुछ दिनों बाद पिता जी इनको देखने इनके गाँव गए। पिता जी ने हर बिरादरी के लोंगों से इनके स्वभाव व संपत्ति के बारे में पूछा। गाँव के सभी लोगों ने इनकी बहुत प्रशंसा की और पिता जी को भी इनसे मिलकर लगा कि ये उस प्रशंसा के योग्य हैं। घर वापस आकर पिता जी कहा, “लड़का बहुत अच्छा है पर उसकी शर्त है कि विवाह लड़की देखकर ही करेगा। इसी चक्कर में वह एक तिलक पहले ही लौटा चुका है।” मैं सोच में पड़ गयी। मुझे तो आजतक किसी ने यह भी नहीं बोला था कि मैं अच्छी दिखती भी हूँ या नहीं। बड़ा भाई मेरी लंबी नाक का मज़ाक बनाते हुए मुझे शूर्पणखा कहता था।

जब यह मुझे देखने आए तब मैंने रो-रोकर बुरा हाल कर रखा था। चेहरा एकदम लाल था। पता नहीं इन्होंने क्या ही देखा होगा। ये भी कुछ बोल नहीं रहे थे। मुश्किल से पाँच मिनट सामने बैठे कि थोड़ी देर में उठकर मुझे पांच सौ एक रुपये देकर झट से बाहर निकल गए। मैं इन्हें पसंद आयी थी और इस प्रकार एक माह के भीतर हमारा विवाह भी हो गया।

अपने घर आकर मैंने सबसे पहले इन्हें डाल के जेवर उतार कर दिये और कहा कि यदि किसी के हों तो वापस कर दीजिए। ये हँस कर बोले तुम्हारे ही हैं, वापस रख लो। यह वह समय था जब मैंने ठीक से इनका चेहरा देखा था। गहरी आँखे, अच्छी लम्बाई और रंग गेंहुआ था। बाद में गौर किया कि लोगों से बातें करते वक़्त ये तर्क कम और हुँकारी अधिक भरते थे परन्तु अपनी बात भी रखते थे। रोज रात में उपन्यास पढ़कर ही सोते थे इसलिए मुझे पढ़े-लिखे भी लगे। चौथी में जब मैं वापस अपने मायके गयी तो सबने मुझे घेर कर ससुराल की बातें पूछनी शुरू की, बारात और इनकी प्रशंसा भी की। इसके साथ ही यह भी बतलाया कि सास व ननद ना होने के कारण मैं किस प्रकार भाग्यशाली हूँ।

चौथी के तीसरे दिन ही ये गवना लेने आ गए थे। वापस घर आते ही मुझे पता चल गया कि ये मुझे अच्छे लगने लगे थे। इस प्रकार इनका मन जीतने की जद्दोजहद भी शुरू हो गयी। सबसे पहले यह जानना था कि मैं इन्हें कैसी लगती हूँ। मुँह दिखायी में पूरा गाँव मुझे बहुत सुंदर कहकर गया था। इनसे एक दो बार बात करने की भी कोशिश की तो ये कोई जवाब नहीं देते थे। इन्हें खाने से बहुत प्रेम था। अच्छे से अच्छे व्यंजन में कमी निकालने को आतुर रहते थे। खाने में कमी पूछने पर ‘नमक कम है’ बोलकर ही अपनी जीत कर लेते थे। बटुइया भर तहरी बनाती थी और नमक कम कहकर भी तीन चौथाई ये तुरंत ही खा लेते थे। बाहर जाते हुए कहते थे कि बाकी जो बची है रख दो, वापस आकर खा लूँगा। एक दिन मैं भूख के कारण रोने लगी। इन्होंने समझाया कि खाने के लिए कभी मेरा इंतज़ार मत करना। जब भूख लगे तब खा लिया करना। कुछ देर बाद मैंने अठखेलियाँ करते हुए उनसे तहरी की बातकर हमदर्दी चाही तो उन्होंने तपाक से तंज कस दिया, “ग़लती तुम्हारी है, तहरी ज्यादा बनाया करो।“

इनके व्यवहार जैसे आदमी मैंने मेरे गाँव की तरफ नहीं देखे थे। एक बार मैंने जेठ जी से जमीन पर खुद खेती करने सिलसिले में ऊँची आवाज में बात की। रात को मैंने इनसे माफी माँगी। इन्होंने कहा, “ब्याह कर आयी हो भाग कर नहीं, ज़मीन पर तुम्हारा हक है।” एक बार जेठानी जी मुझे एक पंगति मे मिली। मैंने पैर छूने की कोशिश की पर वह इतराकर चली गयीं। कुछ देर बाद वह आकर मेरे पास बैठी तो मैंने उनके पैर नहीं छुए। अगली सुबह जेठ जी गुस्से में आये और इनसे शिकायत करने लगे के तुम्हारी बीवी ने मेरी बीवी के पैर नहीं छुए। इन्होंने कहा, “तुम्हारी दुल्हिन ने कितनी बार मेरी अम्मा के पैर छुए थे?” मेरा मकसद घर की कलह का कारण बनने का नहीं था। पर इसके बाद से मैं इन्हें ‘ये’ ‘वो’ की जगह ‘राजा’ कहने लगी।

ये अपनी नौकरी और समय बचने पर घर के बाहर चौपाल लगाकर ताश खेलते थे। मुझे कोई ज़रूरत पड़ती थी तो मैं दरवाजे की कुंडी खटखटा देती थी। जल्दी ही हमारा ताल-मेल भी बैठ गया था पर ये कई बार समझ नहीं आते थे। बच्चों से इनको बहुत चिढ़ थी और दिन भर भतीजे-भतीजियों को पीटते और डराने को तलवार लेकर दौड़ा लेते थे। बातें इतनी गठी-जुड़ी और कम होती थीं कि मुझे पता ही नहीं था कि इनके भीतर कुछ भावनाएं भी हैं।

बच्चों के नाम पर हमारे सिर्फ एक बेटी हुई। उसके पैदा होते ही मुझे उसकी शादी की चिंता होने लगी। इनका कहना था कि बेटी को इस लायक बनाऊँगा कि दहेज देकर नहीं दहेज लेकर शादी करूँगा। बाजार से लेकर पेशी मुकदमा भी बच्ची को साथ लेकर जाते थे। मुझे इनसे नाराजगी भी रहती थी। कभी मुझे मायके जाकर एक दिन से ज़्यादा रुकने नहीं देते थे और मुझसे मीठी-मीठी बातें भी नहीं करते थे। कोई चीज़ ढूँढनी होती थी तो घर सर पर उठा लेते थे। चीजें मुझसे टूट जाएं तो ‘दिखायी नहीं देता’ और खुद से टूट जाए तो ‘यह कोई रखने की जगह थी’ कहते थे।

पूजा-पाठ और दान पुण्य से कोसों दूर थे। गली-गली घूमने वाले बाबाओं को ढोंगी कहते थे। भगवान में प्रसाद लेने भर की आस्था थी। कभी नहाकर खाना नहीं खाते थे। मैं नहाकर सूर्य देव को जल चढ़ाने में देर कर दूँ तो टोका-टाकी भी करते थे। शादी के 13-14 साल बाद अचानक से मुझे पेट में दर्द उठने लगा। डॉक्टर को दिखाने पर पता चला कि पित्त की थैली में पथरी है। इन्हें पता चला तो इन्होंने मुझसे बात करना कम कर दिया। खाने में रोज खिचड़ी बनाने लगे। डॉक्टर ने बताया ऑपरेशन दो विधियों से हो सकता है एक बड़ा जिसमें पेट पर एक लंबा निशान होगा और एक छोटा (दूरबीन से) से तीन जगह छोटे-छोटे टांके लगेंगे। बड़े ऑपरेशन में आधे पैसे लगने थे। मैंने सोच लिया था कि कंजूस की गठरी बड़ा ऑपरेशन करा दें, वही ठीक रहेगा। इस ऑपरेशन में मुझे एक हफ्ते से अधिक अस्पताल में ही रहना था। ऑपरेशन होने के बाद जब मुझे होश आया तो मैंने नर्स से पूछा के ये कहाँ हैं। उसने बताया कि मेरे मायके से कुछ लोग आए हैं। उन्ही के साथ बाहर चाय-समोसा खा रहे हैं।

कुछ देर बाद ये आये और मैं रोने लगी। इन्होंने कहा, “मुझे चिंता सिर्फ तब तक थी जब तक तुम्हारा ऑपरेशन नहीं हुआ था। चंद्रिका माता पर प्रसाद भी माना है। पंडित जी को 11 किलो आटा और तेल भी दान करने को बोल दिया है।” मैंने पूछा कि अब घर कब जाएंगे। उन्होंने बताया कि दूरबीन वाला ऑपरेशन कराया है, कल ही चल सकते हैं। मैंने कहा कि बड़ा कर देते उसमें कम पैसे लगते, बात एक ही है। उन्होंने जवाब दिया, “छोटा इसलिए कराया ताकि तुम जल्दी ठीक हो औऱ घर वापस चलकर खाना बनाओ।”

घर आकर कुछ दिन मैं बेड रेस्ट पर ही रही और ये खाने में कई दिनों तक खिचड़ी बनाते रहे। रोज पूड़ी पराठा खाने वाले आदमी को जब मैंने हफ़्तों खिचड़ी और सादा खाना खाते हुए देखा तो कारण पूछ लिया। इन्होंने कहा, “तुम्हारे लिए बताए गए परहेज के कारण चटपटा नहीं बना रहा हूँ लेकिन बाहर जाकर चाट खा लेता हूँ।”

शादी के इतने सालों बाद जब मुझे यह यक़ीन हो गया कि इन्हें भी मुझसे प्रेम है एक दिन मैंने इनके कठोर मन का कारण पूछा। इन्होंने बताया, “माँ बाप कम उम्र में गुजर गए। यहाँ तक कि जब बप्पा के जाने की ख़बर सुनी तब मैं खाना खा रहा था और सदमे में खाना खाता ही रहा। अब तुम्हारे सिवाय कोई है नहीं मेरा। इसलिए थोड़ा सुधर भी रहा हूँ।”

मैंने ऐसे ही पूछ लिया कि आप रोते नहीं हैं ना। उन्होंने कहा, “फायदा नहीं है ना।”

मैंने जान लिया था कि ये आदमी कुछ अधिक नहीं बोलेगा। इसलिए मैंने आगे बातें पूछी, सबसे सुंदर नायिका कौन लगती है?

इन्होंने कहा, “मौसमी चटर्जी। वो तुम्हारे जैसी लगती है ना?”

मैं चौंक कर बोली, “मेरी जैसी?”

ये चिढ़कर बोले, “नहीं तुम्हारी अम्मा जैसी, हमसे बार-बार ना कहलवाया करो।“

मैंने भी खुशी के भाव छिपाते हुए कह दिया, “राजा, आप के साथ सास ननद की कमी नहीं खलती है।“

3 thoughts on “राजा

  1. “ये चिढ़कर बोले, “नहीं तुम्हारी अम्मा जैसी, हमसे बार-बार ना कहलवाया करो।”
    “राजा” इंट्रोवर्ट टाइप के लगते हैं 😄, लेकिन लेखिका ने बड़े सुन्दर ढंग से भाव व्यक्त करवाये हैं इस किरदार से… पारिवारिक जीवन में सामंजस्य को लेकर बड़ी बेजोड़ कहानी है… आनंद के साथ सीख भी प्रदान करती हैं…

  2. सतत् चलता रहे चलता ही रहे इस प्यार को व्यक्त करने का नजरिया वाकई पढ़ते रहने के लिये प्रेरित करता रहता है ” वह संबोधन राजा जी “

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