प्रेम प्रतिशोध
कई बार ऐसा होता है कि हम कुछ काम कर रहे होते हैं और कानों में हैंड्सफ्री म्यूजिक ऑन होता है, और तब भी गाने का एक भी शब्द या संगीत हमें सुनाई नहीं देता है क्योंकि मन किसी उधेड़बुन में होता है पर आज एक एक बीट, एक एक शब्द और धुन कविता से पूछ रही थी; “तुम इस गाड़ी में क्यों बैठी हो और ये कैसा कॉन्ट्रैक्ट है जहाँ पैसे मिलते रहेंगे पर करना वैसा ही है, जैसा पास में बैठा यह आदमी कहेगा, ये कैसी गुलामी होगी? यह हर आदमी से अलग क्यों लग रहा है? कहीं ये साइकोपैथ तो नहीं जो तुम्हारी जान ले ले?” खैर, अब इस ज़िन्दगी से बदतर मरना भी क्या ही होगा। यह सोचकर कविता ने अपने मन के विचारों पर पूर्ण विराम लगाया।
तभी करण ने उससे कहा कि घर आ गया है, अंदर चलो। अंदर पहुँचकर करण सोफे पर बैठ जाता है और कविता से कहता है कि वह असहज ना हो। कविता करण के पास ही बैठने को होती है कि करण उससे कहता है; “तुम सबसे पहले एक काम करो, नहा लो. ये जो तीखी सुगंध तुम्हारी देह से आ रही है, इससे मुझे सर में दर्द हो रहा है। कबर्ड में से मेरे ही कुछ कपड़े निकाल कर पहन लेना। मुझसे इतने भड़कीले वस्त्र नहीं देखे जाते। कल मैं तुम्हारे लिए साड़ियाँ ला दूँगा। जब तक यहाँ रहोगी, तुम्हे साड़ी ही पहननी होगी।” यह सुनकर कविता करण की शर्ट और कुछ कपड़े निकलती है और नहाने चली जाती है। करन सोफे से उठकर बाथरूम के बाहर फर्श पर बैठ जाता है। फव्वारे से छन्न करके फर्श पर गिरती हुई पानी की बूँदे करण के ख़यालो को उसी भूतकाल में ले जाकर छोड़ती हैं, जहाँ करण था और उसका प्रेम। अब क्या है? एक प्रतिशोध की कामना जिससे करण को लगता है कि उसका प्रेम पूरा होगा।
कविता बाहर निकलती है तो उसे फर्श पर बैठा देखकर चकित होती है। रुँधी हुई आवाज़ में वह पूछती है; “अब क्या करूँ? करण पूछता है; “क्या तुम्हें खाना बनाना आता है?” कविता सोच में पड़ जाती है कि क्या कभी किसी अनजान व्यक्ति ने उसे साधारण समझकर ऐसे सवाल किए होंगे। वह उत्तर देती है; “हाँ, रोटी सब्जी बना लेती हूँ।” करण कहता है; “तो चपाती सेंक लो। सब्जी फ्रिज में रखी है वो गर्म कर लेना।” अगले दिन सुबह कविता उठ कर बाहर ड्राइंग रूम में आती है तो करण पूजा कर रहा होता है। पूजा घर से निकलकर वह बाहर आता है और कविता से प्रसाद ग्रहण करने को कहता है। कविता चेहरे पर शून्य भाव लिए दाहिना हाथ आगे करती है। करण इशारे में उसे दोनों हाथ बढ़ाने को कहता है।
दोपहर में कविता सोफे पर लेटी हुई घर और घर में रखे समान से करण के अमीर होने का अनुमान लगा रही थी कि अचानक डोरबेल बजती है। करण कविता से दरवाजा खोलने को कहता है। पास की चाची को देखकर करण कविता से चाय बनाने को कहता है। चाची अंदर आते ही करण से शिकायतें करना शुरू कर देती हैं कि बहु भी ले आया चुपके से, मुझे बस नाम की माँ कहता है। कविता दूर से करण के गम्भीर चेहरे की नरम मुस्कान देख रही होती है। पहली बार वो इस चेहरे को गौर से देख रही थी। कविता अब रोज साड़ी पहनती है, पूजा भी करती है और घर की ज़िम्मेदारियाँ भी उठाती है। जब भी वह संकोच सहित करण से वापस जाने को पूछती है तो करण जवाब देता है कि पैसे की फिक्र ना करो, जितने कहोगी मिलते रहेंगे। धीरे धीरे हफ्ते बीतते हैं, महीने और फिर साल। ठीक उतने ही साल जितने करण ने अपने प्यार में गँवाए थे, बिताए थे या जिये थे।
एक दिन शाम को चाय पीते हुए करण कविता से पूछता है कि जब तुम मेरे लिए खाना बनाती हो और मेरी फाइल्स संभाल के रखती हो तो तुम्हें कैसा लगता है। कविता उत्तर देती है; “एक ज़िम्मेदारी का एहसास होता है।” “अच्छा मेरा तुमसे बात करना तुम्हे कैसा लगता है”, करण अगला सवाल करता है तो उत्तर मिलता है कि आपकी बातों से मुझे जो सम्मान मिलता है, वो कभी किसी भी आदमी ने नहीं दिया। “और जब तुम बाहर निकलते वक्त सर से पल्ला डालती हो तब”? करण ने आगे पूछा। “मर्यादा का भाव आता है, मुझे पता ही नहीं था कि मन में ऐसे भाव भी होते हैं।”; कविता कहती है। कविता आगे कहती है कि अब आप मुझे पैसे मत दिया करो। सब कुछ तो है यहाँ। करण उत्तर देता है कि हमारा सौदा तो यही हुआ था और उसके अनुसार तुम्हें पैसे देना मेरा कर्तव्य है और मेरे कहे अनुरूप काम करना तुम्हारा।
“तो जाने दो यहाँ से मुझे, ये भावनाएँ और डर कि किसी दिन मुझे यहाँ से जाना होगा, मुझे सताने लगा है”; कविता कातर स्वर में कहती है। “जिस दिन तुम एक आम लड़की की भाँति हो जाओगी, ठीक वैसी जैसी वह किसी से प्रेम करने से पहले होती है, उस दिन मैं तुम्हे जाने दूँगा। जिस दिन तुम कहोगी कि स्वर की नर्माहट, आँखों की शर्म और मर्यादा का भाव तुम्हारे व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं, तब मैं तुम्हें यहाँ और नहीं रोकूँगा। यही मेरा प्रतिशोध होगा. तुम्हें बंधन में बाँधकर रखना और तुम्हारा उसी बंधन को प्रेम करना मेरे लिए असहज होगा”; करण ने गंभीर स्वर में कहा।
कविता सब बातें भूलकर सिर्फ जाने की बात सोचती है और करुण स्वर में पूछती है; “कैसा प्रतिशोध और किससे”? करण उत्तर देता है; “मेरे प्रेम से और मुझसे। प्रेम में जब मैं उसके करीब गया तब मैंने उसकी आँखों की शर्म छीनी, जब मैंने झगड़े के दौरान उसका अपमान किया तब उसके स्वर की नर्माहट छीनी और जब मेरे कहने पर वह घर छोड़कर मेरे साथ चलने को तैयार हुई, तब मैंने उसकी मर्यादा छीनी। ये शर्म, नर्माहट और मर्यादा तुम्हे सिखाकर मैं वह प्रतिशोध पूरा करना चाहता हूँ। उस प्रेम का प्रतिशोध जो पूरा न हो सका ताकि उस गिरफ्त से मैं निकल सकूँ जो मुझे मेरे ही मन मे दोषी करार देती है।
दावात्याग: यह कहानी मूल रुप से lopak.in पर प्रकाशित हुई थी।
कितना मार्मिक लेखन, उच्च श्रेणी की कल्पनाशीलता, नेत्रों में अश्रु आ गए
Bahut hi behatreen