नारी सम्मान में पुरुष भागीदारी

घमंड तोड़ना है उसका।
कैसे?
चेहरे पर घमंड है तो एसिड डाल कर चेहरा बदसूरत कर दो। चरित्र पर लांछन लगा दो और समाज में थू-थू करवा दो, बस टूट जाएगा घमंड।
लेकिन कुछ महिलाओं का हौसला तो इन सब बातों से भी नहीं टूटता है। उनका क्या किया जाए?
उनकी कमज़ोरी पहचानो और उस कमज़ोरी पर प्रहार करो।
जैसे?
जैसे कि उनके परिवार पर या जिससे भी उन्हें लगाव हो।
कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ पुरुषों ने ऐसे ही पाठ कक्षाओं में पढ़कर क्रूरता व अमानवीयता सीखी होंगी। औरतें असमर्थ होती हैं, यह सोच भी कुछ पुरुषों को घुट्टी की तरह गले से उतारी गयी होगी। तभी समय बदलने से भी विचार अब तक नहीं बदल पाए हैं। कुछ पुरुषों की सोच में औरत का असहाय होना ही उसकी पहचान है और यदि वह असमर्थ व असहाय नहीं है तो उसे असहाय करना होगा क्योंकि दृढ़संकल्प वाली महिलाएँ इस सोच वाले पुरुषों को भयभीत करती हैं।
हमने पिछले जमाने से इस ज़माने तक महिलाओं के साथ हुई अमानवीयता से यही समझा है। पहले की बातें नहीं भी करें तो इस जमाने मे क्या बदल गया है। महिलाएँ तब भी अभिमान की आग में ज़िंदा जलायी जाती थीं और आज भी। कारण अलग-अलग हो सकते हैं पर विचारधारा एक ही है – अहंकार। आपने कई बार ऐसा देखा होगा कि शरीर से कमज़ोर पुरूष जिसके आधार को तेज़ हवा का झोंका भी लहर दे दे, औरतों पर अपना गुस्सा निकालने से नहीं हिचकता। ऐसा क्या होता होगा जो उन्हें अंदर से विवश करता है। मेरे हिसाब में ‘मेल ईगो’ जो उन्हें यह बताता है कि मैं अन्य आदमियों से कमज़ोर हो सकता हूँ पर इस औरत से नहीं जिसे पीटना और जिस पर यातनाएँ करना मेरा अधिकार है।
अनजान लड़की को मदद की लालच देकर उससे की गयी हैवानियत क्या मात्र उन दोषी पुरुषों के बारे में बताती है? समाज के बारे में नहीं बताती? यह वही समाज है जहाँ बलात्कार के मामले भी राजनीतिक दृष्टिकोण से देखे जाते हैं। क्या ऐसे लोग किसी भी बलात्कारी से कम होते हैं?
पहले के समय में घर के काम-काज और बच्चे संभालने का काम महिलाएं करती थीं और पुरुषों से यह अपेक्षा होती थी कि वह बाहर काम करके आर्थिक जिम्मेदारी उठाएं। आज के समय में महिलाएं घर-बच्चे और बाहर का काम भी संभालती है। फिर उन्हें वह सम्मान क्यों नहीं मिल पा रहा है? यह कहना बिल्कुल गलत होगा कि समाज के निश्चित हिस्सों में ही ऊपर बतायी गयी विचारधारा के पुरूष रहते हैं। यह प्रश्न उठता है कि यदि ये हर जगह हैं तो बेनक़ाब क्यों नही हो पाते हैं। शायद इसलिए क्योंकि इनके अपराध अलग होते हैं। शायद इसलिए भी, ये हमें नहीं दिखते हैं क्योंकि इन्होंने स्वयं को सभ्य पुरूषों के बीच में छुपा रखा है और कुछ लोगों ने अच्छाई का चोला पहन रखा है जो चोला कुछ परिस्थितियों पर स्वतः उतरता दिखता है।
शिक्षा और रुतबा किसी की संकीर्ण मानसिकता को नहीं बदल सकते हैं। यह भूला नहीं जा सकता है कि हमारे समाज मे प्रायः कुछ लोग हाथों से, कुछ नज़रों से, तो कुछ बातों से कपड़े उतारते हैं।
‘औरत ही औरत की दुश्मन होती है’ और ‘गलती हमेशा औरत की ही होती है’ जैसे स्टेटमेंट कुछ पुरूषों को क्यों बनाने पड़े और बाकी पुरुषों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया। इसलिए क्योंकि समाज द्वारा अपेक्षाएं भी औरतों से ही की गयीं। कितना अच्छा उदाहरण है उस लड़की का जो एसिड में झुलसा चेहरा लेकर मुस्कुराती है। उसके लिये कितना कष्टकारी होगा उस चेहरे को स्वीकारना जो ईश्वर ने उसे नहीं दिया था।
महिलाएं जब परुषों के विषय मे कठोर बातें करती हैं तब उन्हें उसी समाज के सभ्य पुरुषों का हवाला दिया जाता है। पर क्या कभी महिलाओं की यातनाओं का दृष्टिकोण समझने के लिए किसी पुरुष ने अपना या अपने किसी संबंधी का एसिड से झुलसे चेहरे की कल्पना की है? मन झकझोर नहीं देता है? मेल ईगो के अलावा कुछ पुरुषों के पास ऐसा क्या कारण है जो उन्हें महिलाओं का सम्मान करने से रोकता है। यह मेरे निजी विचार है कि यदि औरत ही औरत की दुश्मन है तो ऐसी सोच रखने वाला पुरुष समाज के दुश्मन हैं।
ऐसा नहीं है कि सभ्य पुरुषों को अन्य के कुकृत्यों में नकारा जाना चाहिए। प्रेम व आदर उनको ही अर्पण होता है। इस प्रकार उनसे अपेक्षा भी अधिक हो जाती है। समाज को संगठित रखने के लिए उनकी भागीदारी अहम होती है और इस भागदारी को प्रायः भावनात्मक बोझ भी उठाना पड़ जाता है। अनुरोध मात्र इतना होगा कि भागीदारी समानता के दृष्टिकोण से देखी जाए, कृपा की दृष्टिकोण से नहीं। पिछले कई दिनों से मन में यही काँव-काँव चल रही है और यह अस्वभाविक नहीं है, अकारण नहीं है।