क्या होगा कश्मीर में

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के हालिया जम्मू-कश्मीर दौरे के बाद राज्य में अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती में भारी बढ़ोतरी हुई है। अमरनाथ यात्रा को रोक दिया गया है और पर्यटकों को कश्मीर से बाहर निकाला जा रहा है। इन सबसे तो यही संकेत मिलता है कि घाटी में कुछ बड़ा होने वाला है। लेकिन वह बड़ा क्या है, यह यक्ष प्रश्न है। घाटी के राजनेताओं, अलगाववादी तत्वों से लेकर आतंकियों तक में बेचैनी साफ महसूस की जा सकती है। बेचैनी तो सीमा पार पाकिस्तान में भी बढ़ी हुई है। जम्मू कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने उमर अब्दुल्ला और बाकी नेताओं को जो स्पष्टीकरण दिया है, उससे डर घटने की जगह बढ़ा ही होगा।
सोशल मीडिया की चर्चाओं पर ध्यान दें तो कश्मीर में तीन-चार बातों की संभावना है। पहला यह कि धारा 370 खत्म कर दिया जाएगा। दूसरा यह कि कम से कम 35A की ही छुट्टी कर दी जाएगी। तीसरा संभावना यह बतायी जा रही है कि जम्मू और लद्दाख को कश्मीर से अलग कर दिया जाएगा। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि प्रधानमंत्री इस 15 अगस्त को श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराएंगे।
महबूबा मुफ्ती का यह कहना कि भारत ने कश्मीरियों के उपर कश्मीर को चुन लिया है, इन चर्चाओं को हवा देता है। लेकिन इसके बाद भी इन बातों के होने की संभावना बेहद कम है। धारा 370 या 35A का खात्मा सिर्फ सेना की तैनाती कर के या वर्तमान माहौल में नही किया जा सकता। यह जब भी होगा, एक क्रमिक प्रक्रिया के तहत होगा, किसी रातों रात होने वाले फैसले से नहीं। सरकार का ऐसा इरादा होता तो इस मुद्दे पर कुछ संवाद भी जरूर हुआ होता या कुछ वैसे संकेत जरुर आते।
जम्मू और लद्दाख को कश्मीर से अलग करने का निर्णय इतना कठिन नही होगा। जम्मू और लद्दाख की जनता कश्मीर से अलग होना चाहती ही है। इससे अब्दुल्ला और मुफ़्ती भी खुश ही होंगे। अलगाववादियों और पाकिस्तान के लिए भी यह अच्छी स्थिति रहेगी क्योंकि ऐसी स्थिति में चुनावों के बाद विधानसभा उसी रंग की होगी जिस रंग के मुफ्ती और अब्दुल्ला हैं। जम्मू की राष्ट्रभक्त जनता ही जम्मू-कश्मीर के मामले में भारत की सबसे बड़ी ताकत है। उस ताकत को जम्मू-कश्मीर से अलग करना कश्मीर पर भारत के दावे को कमजोर ही करेगा। इसलिए मोदी सरकार यह गलती नही करेगी। अशोक सिंघल ने भी ऐसा सुझाव अटल जी को दिया था लेकिन इन्ही कारणों से अटल जी ने यह सुझाव नहीं माना।
प्रधानमंत्री के लाल चौक पर झंडा फहराने की बात 1991 में मुरली मनोहर जोशी के साथ उनके द्वारा झंडा फहराने से प्रेरित लगती है। यह संभावना बताने वाले सुरक्षा बलों में बढ़ोत्तरी को प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जोड़ रहे हैं। लेकिन यह संभावना क्षीण ही लगती है और इसका कोई बड़ा लाभ भी नहीं दिखता।
तो फिर प्रश्न यही उठता है कि आखिर कश्मीर में ऐसा क्या होने जा रहा है जिसके लिए सैन्य बलों की संख्या में भारी बढोतरी की जा रही है। कश्मीर में किसी आतंकवादी घटना या नियंत्रण रेखा के झगड़ों के लिए पर्याप्त बल तो पहले से ही मौजूद है। नई तैनाती के पीछे कोई तो कारण त़ो होगा ही। लेकिन तमाम सुरक्षा विशेषज्ञ और कश्मीर के जानकर इसका कोई उत्तर नही दे पा रहे हैं। ऐसा लगता है कि सरकार में भी अधिक लोगों को शायद ही इसकी पक्की जानकारी हो।
एक और कोण भी है। तालिबानी कहा करते थे कि अमेरिका के पास घड़ी है और हमारे पास वक्त। ऐसा लगता है कि घड़ी वक्त से हार गई है। डोनल्ड ट्रम्प अगले चुनावों से पहले अफ़ग़ानिस्तान से निकलना चाहते हैं और यह पाकिस्तान के सहयोग के बिना सम्भव नही है। अमेरिका की अफ़ग़ानिस्तान से एग्जिट पाकिस्तान के हिसाब से हुई तो अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान का प्रभाव बढ़ेगा जो भारत कतई पसन्द नही करेगा। अफ़ग़ानिस्तान में भारत ने बेशुमार दौलत और ऊर्जा लगाई है, जिसे कोई भी सरकार बर्बाद नही जाने देना चाहेगी। ऐसे में क्या इस सम्भवना से इनकार किया जा सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान और तालिबान की वापसी के एवज में कश्मीर में भारत को अमेरिका की तरफ से छूट मिले और भारत जल्द से जल्द मौके को भुनाना चाहता हो? लेकिन तब पाकिस्तान क्या करेगा? उसे तो अफ़ग़ानिस्तान भी चाहिए और कश्मीर भी।
इतना संकेत तो साफ है कि सरकार कश्मीर में कुछ तो बड़ा करने वाली है। संभव है कि सरकार अलगाववादी नेताओं पर कार्यवाही करने वाली हो और किसी भी संभावित नागरिक विरोध के मुकाबले के लिए ये तैयारियाँ की गई हों। यह तो कहना ही होगा कि कश्मीर की ताजा स्थिति नयी सरकार में कश्मीर की प्राथमिकता का एक द्योतक है।
फोटो क्रेडिट: गुगल