माँ
संसार के सबसे कोमल रिश्तों और उनके भावों को व्यक्त करना बड़ा मुश्किल लगता है। लिखते-लिखते गला रुँध जाता है और हाथ ठिठक से जाते हैं। सार्वजनिक रूप से बात करने की कोशिश भी करें तो कैसे। रह-रह कर एक चेहरा आँखों के सामने घूम जाता है। पूछता है कि क्या बिना निजी भावनाओं के हावी हुए कलम का धर्म निभा पाओगे। जवाब भी क्या दें और क्यों दें। क्या यह रिश्ता सबके लिए एक सा नहीं होता! क्या इस रिश्ते के प्रति एक से आदर भाव सबके मन में नहीं होते हैं? यदि हाँ तो यह उचित है कि मैं अपनी माँ लिखूँ और उसमें आप अपनी माँ को खोजें।
मैंने जितना देखा और समझा है, उससे यह जाना है कि माँ होना एक मनुष्य होने से बढ़कर एक धर्म होता है। वह धर्म जिसका अनुसरण करते हुए एक मनुष्य किसी के लिए भगवान सा हो जाता है। यह धर्म किसी एक रिश्ते पर ही लागू नहीं होता। माँ वह हर व्यक्ति है जो बिना किसी अपेक्षा के स्वयं से अधिक किसी के प्रति प्रेम और स्नेह रखने में सक्षम हो। माँ की यही परिभाषा है कि जो अपने बच्चे को अच्छा पुत्र या अच्छी पुत्री के मानकों पर परिभाषित ना करके भी अथाह स्नेह दे।
जीवन वह जंगल है जहाँ हर व्यक्ति हर क्षण कोई भय लेकर जी रहा होता है। माँ उस शेरनी की तरह होती है जो अपने बच्चों की रक्षा करने के साथ-साथ उन्हें जंगल में आत्मरक्षा के नियम भी सिखाती है। जीवन के जंगल में नियम व्यक्तिपरक होते हैं। इन्हें सीखते ही व्यक्ति उन्हें लागू करने की होड़ में अकेला आगे बढ़ने को तैयार हो जाता है। आगे चलकर उसे भटकाव मिलते हैं। भूलभुलैया जैसे रास्ते दिखते हैं। उन्ही रास्तों में घर बनाकर रहने का प्रयास होता है। मन में दुविधा लिए व्यक्ति उस जंगल में भटकता रहता है। घर व सुख सुविधा का सामान जोड़कर भी सुकून क्यों नहीं मिल पाता। पुराना घर याद आता है या माँ? माँ जहाँ है, वहाँ होना इतना मुश्किल क्यों लगता है। उसके साथ रहने की इच्छा से यदि आप उसे पास ले भी आएं तो क्या वह ऐसा ना होगा जैसे किसी पक्षी के पर काटकर अपने पास पाला जाए या ऐसा जैसे अपने मनोरंजन के लिए किसी जीव को पिंजरे में बंद रखना।
काम-काज की दुनिया आपको जीवन के कई रंग-ढंग सिखलाती है। ऐसा भी होता है कि कुछ ऐसे सूत्र भी मिलते हैं जो निजी जीवन पर लागू होकर उसे बेहतर बनाने के काम आते हैं। कई बार यह मायने नहीं रखता कि जैसा चाहा था वैसा हो रहा है या नहीं। मायने यह रखता है कि जो हो रहा हो वह चाहने योग्य हो। गरीब हो, मध्यम वर्गीय या उच्च वर्गीय, सबको माँ से दूर एक मुकाम पर स्वयं को स्थापित करने की जल्दी होती है। कई बार इन्हें जिम्मेदारियों और मजबूरियों का नाम दिया जाता है। मन को भी ऐसा लगता है कि जो कर रहे हैं, वह अपनो की सुविधा के लिए आवश्यक है। पर क्या ऐसी राहें जल्दी-जल्दी चलने से समाप्त हो जाती हैं? सबसे बड़ा दुःख क्या है? सिर्फ एक वाक्य में समझने से बेहतर है यह पढ़िए – मेरे एक जानने वाले ने अपनी कहानी बतायी। हममें से बहुतों की तरह मध्यम वर्ग में पलने के कारण कई सुख-सुविधाओं के लिए उन्हें मेहनत करनी पड़ी। वह कहते हैं कि स्वयं को स्थापित करने करने में मैं भूल गया कि माँ बूढ़ी भी होती है। जो सुख मैंने माँ के हिस्से में जोड़ रखा था, वह व्यर्थ था। अपनी मनःस्थिति माँ को बतलाने पर उसने सिर्फ़ इतना कहा कि मुझे तो सदैव तुम्हारा समय ही चाहिए था।
अब इतने बड़े होकर माँ से क्या कहना कि मैं जब बाहर से आऊँ तो आप घर पर ही मिला करो। संसार का सबसे सुरक्षित लगने वाला स्थान घर भी माँ के ना होने पर असुरक्षित महसूस कराता है। घर का अतरी-कोना बेजान और सूना लगता है। घर का मंदिर जहाँ देवी रहती है अर्थात रसोई के पट बन्द लगते है। ऐसा समाज जहाँ सब सिर्फ बोलते हैं, वहां आपकी बउखलों वाली बातें भी कोई मन से सुनता है। माँ का होना कितना सुरक्षित महसूस कराता है, चाहे वह घर की बात हो या जीवन की। इतने बड़े होकर बात-बात पर माँ से यह कहना कि आपसे बहुत प्यार है, अजीब लगता है। हर बात पर उनका चेहरा देखते हुए प्रेम आँखों से भी व्यक्त किया जाता है।
जीवन के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति के लिए क्या ना किया जाए जो कम ना लगे। ‘मैंने समय ना निकल जाए’ के डर से छोटी-छोटी खुशियों पर ध्यान देते हुए उसे सबसे अधिक समय देने का प्रण लिया। ऐसा करके भी मुझे लगा कि यह मैंने उसके लिए नहीं बल्कि अपने सुकून के लिए किया है। अब उसकी उलूल-जलूल बातों को सुनकर एक प्रेमी सा महसूस होता है जो प्रेमिका की बातों पर ध्यान नहीं देता बल्कि उसकी आवाज़ में खोया होता है। बीच-बीच में यह भी कहता है कि अच्छा इतनी क्यूट हो तुम। ऐसी बातें और प्रपंच घण्टों चलते हैं। फ़िर भी कम लगता है। उसकी हर ख्वाहिश और छोटी मोटी इच्छा याद रहती हैं। चाय की पत्ती से लेकर पसन्द की साड़ी का रंग याद रहता है।
एक बात गौर करने योग्य है कि कैसे हर व्यक्ति को संसार मे सिर्फ अपनी माँ के हाथ का खाना स्वादिष्ट लगता है। इस पर शोध करते हुए मैंने एक ताई जी के घर भोजन किया और उस भोजन में मुझे वैसा स्वाद नहीं लगा। उनके पुत्र से बात करने पर पता उसने भी यही कहा है कि मेरी माँ बहुत अच्छा खाना बनाती हैं। मैं समझ गयी थी कि कुछ माँए सही में अच्छा बनाती होंगी बाकी यह स्वाद विकसित होने वाली बात है या फिर ममता से भी कोई स्वाद निकलता होगा। यह प्रेम की बात भी है और स्वाभाविक भी कि कैसे इस संसार में आते ही सबसे पहले देखा जाने वाला चेहरा औऱ उसकी हर बात सबसे सुंदर लगती है।
कहीं देर नहीं हो, इस बात को ध्यान में रखते हुए मैंने हाल ही में अपनी माँ को कार ड्राइविंग सिखाना शुरू किया। वह उम्मीद से जल्दी सीखने लगीं। उनके बगल में बैठकर उनके चेहरे को देखना कि जब वह गियर बदलने में घबराती हैं तो एक बच्चे सी लगती हैं। किसी मोड़ पर गाड़ी मोड़ने के बाद हैंडल सीधा करना भूल जाती हैं तो हड़बड़ा जाती हैं। मेरा हैंडब्रेक पर हाथ रखते हुए उन्हें आश्वस्त करना के “मैं हूँ ना” मुझे मेरा ही बचपन याद दिलाता है। मैं उनकी सहायता के साथ-साथ उनके हाव-भाव देखना नहीं भूलती। कुछ साल पहले तक मेरी माँ मुझे संसार की सबसे अच्छी महिला लगती थीं। अब वह मुझे किसी परिभाषा में परिभाषित होने वाला चरित्र नहीं लगती, मेरी बिटिया लगती हैं। जब बच्चे बड़े होते हैं तब माँ-बाप और बड़े नहीं होते, वे बच्चे बन जाते हैं। यह जीवन का सबसे सुखद क्षण होता है।
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