लिट्टी-चोखा के बहाने बिहार की राजनीतिक पड़ताल
हमारे देश में गझिन लोकतंत्र है। दिल्ली के मालिक का रिन्युअल हुआ नहीं कि ‘कोरबो लोड़बो जीतबो’ दस्तक दे रहा है। विश्लेषक ‘मन मेल’ से ‘ले लुगरिया चल डुमरिया’ की तर्ज पर अगला पड़ाव डालने के लिए कोलकाता निकले थे पर उन्हें जंजीर खींचकर ट्रेन को पटना में रोकना पड़ा। प्रधानमंत्री के ‘हुनर हाट’ में बिहारी व्यंजन लिट्टी-चोखा खाने से उन्हें ऐसा करना पड़ा वरना पटना की गढ़ुअन लड़ाई तो बाद में है। वे पीएम के लिट्टी-चोखा भोज को बिहार चुनाव प्रचार का अनौपचारिक आरम्भ बताने लगे। पीएम के आलोचकों को एक मौका मिल गया और वे इस तथाकथित पीआर को मजबूती देने में जी-जान से जुटकर आलोचना धर्म निभाने लगे। इन पंक्तियों के लेखक ने भी गरम लोहे पर चोट किया और आप यह हुआ लेख पढ़ने को बाध्य हैं।
पीएम के विरोधी अकारण ही बिफरने लगे जबकि उनके पास भी विकल्प खुले हैं। न तो प्रधानमंत्री द्वारा खायी गयी लिट्टी अंतिम थी और न ही लिट्टी-चोखा ही बिहार का एकमात्र व्यंजन नहीं है। वे ‘चीनी-चूड़ा-दही सब काम सही’ आजमा सकते हैं, फिरी का हमें भी खिला सकते हैं। वे मैथिली व्यंजन खा सकते हैं। यह बात साफ हो चुकी है कि लिट्टी-चोखा पूरा बिहार नहीं है साहेब। अपने अरमानों की शीतबुकनी बनाने से अच्छा है कि ये विरोधी गण सतुआ ही सान लें। और कुछ नहीं तो भूँजा ही खाएं। बिहार का मौजूदा राजनीतिक अंकगणित तो यही कहता है कि चुनाव के बाद भी उनके फुटहा फाँकने की ही संभावना अधिक है।
बिहार के चुनाव अभी बहुत दूर हैं पर हलचल जबर है। पिछले दिनों जदयू और राजद के बीच भीषण पोस्टर युद्ध हुआ। राजद ने बिहार के अवरुद्ध विकास के लिए जदयू पर हमला किया और जदयू ने राजद के मंगलराज की याद ताजा करायी। मैच अनिर्णीत रहा। एक साल से अधिक की महागठबंधन के प्रदर्शन पर ही हो सकता था जब दोनों गलबईयां डाले अवश्यम्भावी जुदाई होने तक साथ जीने-मरने की कसमें खा रहे थे। इस पर दोनों दल बगलें झाँकते हैं। दोनों से एक दूसरे के साथ न आने की बात पूछी गयी तो चुप्पी चीखने लगी, “राजनीति में कुछ असंभव नहीं।“
उधर खबर आयी कि महागठबंधन के चार स्वयंभू शक्तिशाली नेता शरद यादव, जीतनराम माँझी, उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश साहनी ने बैठक की। जनता ने इन्हे फूँका हुआ कारतूस बताकर इग्नोर कर दिया पर यह व्यंग्यकार ऐसा नहीं कर सके। मसाले की आस में जर्रे-जर्रे की खबर रखनी पड़ती है साहेब। महागठबंधन की बैठक हुई और राजद को खबर नहीं, काँग्रेस को पता नहीं। वैसे काँग्रेस का पता बिहार क्या पूरे देश में ही मुश्किल से लग रहा है। उक्त बैठक पर इस व्यंग्यकार के अलावा सिर्फ एक व्यक्ति की नजर थी और वे थे स्वयं नीतिश कुमार। क्या पता कि ये चारों नेता मिलकर कोई तीसरा मोर्चा ही बना लें और छरपा-छरपी के विकल्पों में वृद्धि हो जाए। बहरहाल, राजद ने इस बैठक पर आपत्ति की तो शरद यादव लालू जी से मिलने राँची पहुँच गये, सफाई भी दी और राज्यसभा सीट की राजद की तैयार हो रही फसल काटने की अर्जी भी। उसी सीट के लिए रघुवंश बाबू अलग ही फील्डिंग कर रहे हैं। दो सीटों में से एक तो बाँसुरी वादक सह विविध विधा कलाकार तेजू के लिए आरक्षित बतायी जा रही है क्योंकि विधानसभा चुनावों में उनके विरुद्ध ऐश्वर्या की चुनौती तय मानी जा रही है और इसे स्वीकार करना राजद को गवारा नहीं।
जीतनराम माँझी साहब ने बैठक के एक दो दिन बाद शराब प्रेमियों की आवाज बुलन्द की। जदयू के विधायक कला-प्रेमी श्याम बहादुर सिंह ने जीतन माँझी को कोरस दिया। जीतन राम माँझी का रेंज व्यापक है। उन्होंने हम सबको बताया कि आने वाले समय में वेलेन्टाइन डे दशरथ माँझी के नाम पर मनाया जाएगा। व्यंग्यकार का बिहारी मानस बल्लियों उछलने लगा। महागठबंधन में यही ढ़ुकुर-पाईंच चल रहा है।
बेगूसराय में पटखनी खा चुके दिल्ली की सनसनी कन्हैया कुमार भी हमले झेल झेल कर बिहार में लगे हुए हैं, जबकि 90 के दशक में ही बिहार के एक अखबार में हेडलाइन छप चुकी है – भाकपा हाफ, माकपा साफ। आजकल भाकपा साफ हो चली है और माकपा माइनस में चल रही है। कन्हैया कुमार 85 और 15 के बीच की लड़ाई का आह्वान कर रहे हैं। वह भोले हैं जो यह नहीं समझते कि 85 और 15 की लड़ाई में उन्होंने 15 नंबर की जर्सी ही पहन रखी है। वह थोड़े भुलक्कड़ भी हैं वरना यह नहीं भूलते कि बिहार में लगभग सारे छोटे-बड़े प्रमुख नेता 85 में से ही निकले हैं, गरम दल के गिरिराज सिंह व एक दो और को छोड़कर।
प्रशांत किशोर अलग चौड़े हो रहे हैं और नीतिश कुमार पर सिद्धांत की राजनीति से विचलित होने का आरोप लगा रहे हैं। चुनावी रणनीतिकार के रुप में वह कमोबेश हर धारा के दल का काम कर चुके हैं। उनकी यूएसपी यह है कि जो जीत रहा होता है, उसे जिता देते हैं और जो हार रहा होता है, वह इनके बावजूद भी हार ही जाता है। प्रशान्त किशोर पहले यह तय कर लें कि वह खउआ-पकउआ चुनावी रणनीतिकार हैं या सिद्धांतों और मूल्यों की राजनीति करने करने वाले राजनेता। कहीं ऐसा न हो जाए कि नेता वह बन नहीं पाएं और चुनावी रणनीति का बाजार भी उनका विकल्प खोज ले।
भाजपा अभी शांत है। गिरिराज सिंह एक आधा हिलोरें उठाते रहते हैं और चिराग पासवान ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ से लोजपा के ‘फेमिली फर्स्ट’ का मिथक तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं पर एनडीए में रोमांच तब आएगा जब सीटों का बँटवारा शुरु होगा। दिल्ली के परिणामों पर सबसे अधिक खुश नीतिश कुमार ही होंगे। उनकी खुशी गठबंधन में सीटों के मोल-भाव में उनकी ताकत बनेगी। इधर और उधर दोनों तरफ स्वीकार्यता की लग्जरी तो उनके पास है ही। रही बात बिहार तो मद्धिम पड़े टिपकारी विकास के बीच शराबबंदी व मानव श्रृंखला का द्विसूत्री कार्यक्रम हिट है। विकल्प देखें तो मंगलराज सामने दिखता है – आगे कुँआ पीछे खाई, बीच में फँसे बिहारी भाई। फिर भी बिहारी मानस को हिम्मत हारने की आवश्यकता नहीं है। आठ महीने शेष हैं चुनावों में। तब तक गंगा में बहुत पानी बहेगा। क्या पता गंगा मइया के अमृत से बिहार पवित्तर ही हो जाए।
बहुत उम्दा लेख रंजन जी,लालू क्या जेल से हवाई फाइरिंग करेंगे या परौल का राग अलाप कर चुनावी मैदान मे आयेंगे। जैसे झारखण्ड मे bJP अजसू और छोटे सहयोगी को दरकिनार करते हुए चुनाव लड़ी और आपसी कलह से सरकार नही बना पायी। क्या दिल्ली और झारखंड चुनाव से बिहार मे भाजपा सबक सीखेगी और फिर से नितीश जी को मौका मिलेगा?
बहुत बहुत धन्यवाद सिंह साहब।