जय हिन्द!

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भारत एक त्योहार प्रधान देश है। भारत के अनन्य त्योहारों में गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस राष्ट्रीय अवकाश के साथ मनाए जाते हैं। कई त्योहारों की तरह इन राष्ट्रीय दिवसों का महत्व भी बचपन में अधिक और बड़े होने पर इसका क्षय होता दिखता है। आज की पीढ़ी की विचित्र बात यह है कि चाहे धार्मिक या राष्ट्रीय त्योहार हों, हम जब तक इन त्योहारों का भली-भाँति अर्थ व महत्व नहीं जानते तब तक ही इन्हें मनाने की स्फूर्ति रखते हैं। धीरे-धीरे इन त्योहारों को मनाने के दृष्टिकोण भी बदल जाते हैं। हम सच में व्यक्तिगत तौर पर विकसित हो रहे हैं या यह आलस मात्र है? यह दृष्टिकोण समझना मुश्किल भी है और आवश्यक भी क्योंकि छोटे शहरों और गाँवों में अभी भी इनकी सुंदरता बहुत हद तक बरकरार है।

आप यह बात अवश्य मानेंगे कि ये अवकाश विद्यार्थी जीवन में विचित्र अनुभूति कराते हैं। याद करें, इस दिन लोगों और बच्चों की आँखों में एक अलग ही उत्साह दिखता है। विद्यालयों में एक सप्ताह पूर्व ही इस दिवस के लिए तैयारियाँ आरम्भ हो जाती हैं। शिक्षक अपनी-अपनी कक्षा के बच्चों को रंगारंग कार्यक्रमों के लिए तैयार करते हैं। ऐसा लगता है कि गणतंत्र दिवस पर एक अलग ही सुबह होती है, जैसे सूर्य की किरणें  गणतंत्र के गीत गा रही हों। यह एक ऐसा दिन होता है जिस दिन माता-पिता को अपने बच्चों को डाँटकर विद्यालय जाने के लिए उठाना नहीं होता है।  बच्चे ख़ुद ही एक स्फूर्ति के साथ जल्दी उठकर तैयार होते हैं। यह भी सुनने को मिलता है कि बाकी सब विद्यालय पहुँच चुके होंगे और हमें देर हो रही है। मिठाई की दुकानों पर भी राष्ट्रभक्ति के गीत बजाए जाते हैं।

चाचा बताते हैं, “उनके समय सीनियर बच्चों को गणतंत्र दिवस पर बाँटने

वाली मिठाई बाजार से लेने जाने के लिए नियुक्त किया जाता था। इस प्रकार कुछ बच्चे रंगारंग कार्यक्रमों से अधिक सड़क पर नज़र बनाये रखते थे कि मिठाई अब तक क्यों नहीं आयी। कुछ बच्चे भाषण को ना सुनकर, दिवस की विशेषताओं को ना समझकर जलेबी से गणतंत्र और लड्डू से स्वतंत्रता दिवस जानते थे। जिन विद्यालयों में जल्दी मिठाई बँट जाती थी, उसके बच्चे वहाँ से निकलकर पास के अन्य विद्यालयों में पहुँच जाते थे।” आज भी यह सब गाँव और छोटे शहरों के विद्यालयों में देखने को मिल जाएगा। शायद वहाँ के लोग अभी भी अपनी मासूमियत बनाकर रखने में सफल हैं।

बड़े होकर हमारे उत्साह में कुछ गिरावट ज़रूर आयी है पर इसके लिए सम्मान कम नहीं हुआ है। राष्ट्र प्रेम की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है और न ही उसका कोई स्थापित पैमाना है। अलबत्ता, ऐसे त्यौहारों की गरिमा बनाते हुए हमें अपने दृष्टिकोण भी सुधारने होंगे। यदि सुबह-सुबह कोई तिरंगे की फ़ोटो ट्वीट नहीं कर रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उसके मन में इस दिवस का कोई महत्व नहीं है। हो सकता है रात को नेटफ्लिक्स या फुटबॉल देखने के कारण वह सुबह सोकर ही नहीं उठा हो। यदि कोई सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान बजने पर सीट से नहीं उठ रहा है तो इसका यह पक्का अर्थ नहीं है कि वह राष्ट्रविरोधी है, कमर दर्द भी तो एक कारण हो सकता है।

ख़ैर, हम कुकुर-बिल्ली की फ़ोटो ट्वीट करने वाले लोग ऑफिस ना जाकर, आसपास के पार्क या स्कूल में लहराते तिरंगे को देखकर सर उठा कर मुस्कुराते हुए इसके सदैव गगनचुम्बी रहने की प्रार्थना करते हैं। हम कविता, शेर-ओ-शायरी पसंद करने वाले लोग लता मंगेशकर द्वारा गाया गया गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों …’ सुनकर आज भी आंखों को नम करते हुए राष्ट्र को यह बतलाने की इच्छा रखते हैं कि जताते नहीं भी हों पर आस्था व सम्मान में कोई कमी नहीं है। हर गणतंत्र दिवस झंडे के नीचे राष्ट्रगान भले ही ना गायें पर थियेटर में राष्ट्रगान के सम्मान के विरुद्ध जाकर ‘उठना है क्या’ वालों की सूची में नहीं आएंगे। कमर दर्द भी हो तो भी बाम लगाते रहेंगे, देश के गुण गाते रहेंगे।

जय हिन्द!

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