फ्लाइट में एक फ्लैशबैक
नौकरी का ख्वाब आया था। उस रात जब झटके से उठ कर बैठा था और बाजू में सो रहे बंटी को जगाकर कर कहा था, ” यार मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव बन जाता हूँ।” ‘ओके’ कहकर करवट बदली और सो गया था बंटी। ऐसा ही था वो..
ख्याल इसलिए आया था कि हम तो उस समय ग्रेजुएशन की पढ़ाई ही कर रहे थे जब दो सिन्हा और एक महाजन हमारे गैंग में शामिल हुए थे। एक थे एरिस्टो में, एक एल्डर में और महाजन साहब थे हिमालयन में। हिमालयन का जलवा उन दिनों कुछ यूँ था कि उनका डेली एलाउएंस ग्लैक्सो से भी ज़्यादा था। सन् ९० में ९० रुपए रोज के मिला करते थे और अगर बाहर जाओ तो १३५ रुपए। तनख्वाह नए मुलाजिमों की कम हुआ करती थी पर एलाउएंस में नम्बर १ थी कंपनी। दूसरा जलवा ये भी था, जो २००० तक जारी रहा, कि उन दिनों कहीं हिमालयन की नौकरी के लिए इश्तहार नहीं आया करते थे। अगर कहीं ज़रूरत हुई तो कम्पनी में काम कर रहे लोगों से कहा जाता था कि वो ही किसी को रेफर करें।
हिमालयन में तो नौकरी की उम्मीद नहीं ही थी किन्तु उन दिनों प्लेथिको का एक नया डिवीजन लॉन्च हुआ था, Anzalp के नाम से और उसके बड़े साहब झाँसी में ही हुआ करते थे। उनसे जुगाड़ लगवाई गई और कैसे कर करा कर नौकरी कर ली। ८९ में नौकरी की और ९० में छोड़ देना पड़ा क्योंकि कम्पनी में आर्थिक मंदी आ गई थी। ९० दिसंबर में डाबर से ऑफर आया और वो जॉइन कर लिया।
वैसे सपना अभी भी पाले बैठे थे कि एक दिन हिमालयन में ज़रूर काम करेंगे। Anzalp के समय के किस्से और ही है जो मैंने आपको पहले कहीं सुनाए हैं , शायद वो सुई वाले डॉ का किस्सा इसी दौरान का है। आपको बताता चलूँ कि हिमालयन में काम करने का सपना वो दूसरा सपना था जो मैंने देखा था, पहला तो अपनी महबूबा से शादी करने का ही था।
पूरे हुए सपने?
वो किस्सा फिर कभी …
लौट के आते हैं उस तस्वीर के किस्से पर जो आपने ऊपर देखी है।
डाबर में जब नौकरी लगी तो ट्रेनिंग के लिए बुलाया गया दिल्ली। शिवाजी रोड, कनाट प्लेस पर ऑफिस में ट्रेनिंग होना तय हुआ पर रुकने का इंतजाम खुद का था। दिल्ली महंगा आज भी है और आज भी है। नौकरी पिताजी के खिलाफ जा कर की थी तो पैसा माँग भी नहीं सकते थे। इज्जत का भी सवाल था, चूँकि मेरी महबूबा तब तक मेरी मेहरारू बन चुकी थी।
बंटी उन दिनों दिल्ली में संघर्ष में लगा हुआ था। एक भरे पूरे परिवार का लड़का अपनी दम पर कुछ बन जाने के लिए लॉ करने के बाद दिल्ली के देव नगर में तीसरे फ्लोर की छत पर बनी एक दूछत्ती में रह रहा था, दूछती पर एक टीन की चादर पड़ी हुई थी। नहाने धोने का इंतजाम छत पर खुले में ही था। जिसने कभी उठकर एक ग्लास पानी नहीं पिया हो वो अपने कपड़े धोता था, कच्चा पका खाना खाता था। मै अपनी नई बसाई हुई गृहस्थी की नैया पार करने में लगा हुआ था। मुझे उस संघर्ष का कुछ पता नहीं था। दोस्त तो दोस्त ही होते है। बस हम पहुँच गए १५ दिन के लिए दिल्ली वाले उसके घर। पहुँचा तो दिल भर सा आया था पर बंटी के माथे पर शिकन नहीं थी।
वो जुटा हुआ था आईएएस की तैयारी में, एक ही फितूर कि आईएएस बनना है। १२ से १५ घंटे की पढ़ाई, खाना बनाना, साफ सफाई करना और फिर मुस्कुराते हुए मेरा शाम को इंतजार करना उन १५ दिनों में बस यही देखा था मैंने। पैसे कहाँ से आते थे, नहीं पता और न जानने की कोशिश की थी। वो तो आज पता है कि उन दिनों कभी कभी तो सिर्फ मुस्कुरा कर भी पेट भरा भाई साहब ने।
दिन में हमारा खाना ऑफिस में हो जाता था पर रात को देवनगर में ही घर में खाते थे। कम्पनी की तरफ से ३५ रुपए मिलते थे खाने को और आने जाने को जिसमे करीब १५ रुपए खत्म हो जाते थे, आने जाने में बस और रिक्शा से। दिन में लंच टाइम में आकर मेहरारू को हेल्लो कॉल और बाकी बचे पैसे से हम अपनी मेहरारू को शाम को एसटीडी कॉल लगाया करते थे।
कभी घर पर बात नहीं होती थी तो जाकर ढाबे पर खाना खा लेते थे। १२ रुपए की हाफ फ्राई दाल आती थी और ३ रुपए की तीन तंदूरी रोटी। इतवार को हमारी बड़ी पार्टी होती थी। पहले हम आराम से करीब १५ रुपए की बात अपनी महरारू से करते थे और २० रुपए बचा लेते थे। फिर बंटी और हम देवनगर में एक ढाबे में जाकर एक दाल मख्खनी और ४ रोटी लिया करते थे और साथ में गोभी की सब्जी।
वक़्त निकलता गया, बंटी आगे बढ़ता गया। वहां से निकलकर ऊपर बढ़ता गया, तरक्की के नए आयाम छूता गया। मै भी खरामा खरामा ठीक ठाक चलता गया। दिल्ली के उस इलाके में कभी दोबारा जाना हुआ ही नहीं। तीस साल बाद इस बार बंटी के ऑफिस के किसी बच्चे की उसी इलाके में सगाई था। बंटी ने मुझे भी बुलाया। पार्टी में वही सब था – डोसा, पाव भाजी, चीला, एग्जॉटिक फ्रूट्स, २० कॉर्नर खाने के। हम दोनों ने कोने में जाकर पानी पूरी खाई और लिफाफा थमा कर बाहर आ गए।
पार्किंग में जा रहे थे तो सड़क किनारे एक तंदूर दिखा, साथ में रखी कुछ मेजें दिखी और उन पर बैठे दिखे दो लड़के। उम्र रही होगी २०-२१ और सामने थी एक प्लेट दाल मक्खनी और तंदूरी रोटियां। मैंने बंटी की ओर देखा और उसने मेरी ओर और दोनों मुस्कुरा दिए।
बोला पता था… आगे गया और ढाबे वाले को बोला, “एक प्लेट दाल मखनी लगाइए और एक रोटी तंदूर की।” उसने मेरी ओर देखा और फिर हम दोनों ज़ोर से हँस दिए। गले लगे, ऊपर वाले का शुक्रिया अदा फिर से किया और मेज़ पर बैठ गए।
दूर से देखता ड्राइवर आकर बोला, “भैया जी यहां खाइएगा ?”
बंटी ने बस मुस्कुरा दिया।
सच बताऊं तो इस दाल में कोई स्वाद नहीं था, रोटी में भी नहीं पर वो जो पल जिया हमने वो अनमोल था।
तीस साल लगे थे हमको यहां आने में, इन तीस सालों का सफर बहुत लोगों को पता भी नहीं उनको। मै और बंटी आज जहाँ दिखते हैं, उसके पीछे की कहानियां नहीं पता हमारे खानदान के बच्चों को। नई पीढ़ी की हमेशा से एक दिक्कत रही है कि वो बहुत जल्दी में रहती है। हम भी थे और आज वाले भी हैं। उनको शॉर्टकट चाहिए। शॉर्टकट से सेहत दुरुस्त नहीं होती दोस्तों। तंदरुस्त होना है तो लंबा रास्ता चुनिए। आप स्वयं बताइए कि रोज़ १०० मीटर चलने वाला स्वस्थ रहता है या ५ किलोमीटर चलने वाला?
फिलहाल आते हैं उस रोटी और दाल मक्खनी पर जो करीब १५० रुपए था पर १५ वाली में जो बात थी वो इसमें नहीं थी। मुझे आज ये लगता है कि जब हम चीज़ों को अफोर्ड करने लगते हैं तो उनकी चाहत कम होती चली जाती है। सोचिएगा आप कि एक ब्रांडेड कमीज़ लेने के लिए आपको रोज़ सोचना पड़ता था, पैसे जमा करते थे और फिर जाकर खरीद पाते थे और आज जब आपको नहीं सोचना है तो तो आपको खरीदने का मन भी नहीं।
खुशियों और सहूलियतों में फर्क करना भूल गए हैं क्या हम सब? सोचिएगा …
फ्लाइट बस लैंड करने वाली है.. जकार्ता आने वाला है, कल से चालू दफ्तर.. और हाँ, वो हिमालयन वाला मेरा सपना पूरा हो गया था, सन ९० में ही। कैसे हुआ वो किसी और दिन फिलहाल ये जान लीजिए कि सारे सपने पूरे होते है, बस देखना तो शुरू कीजिए आप। और फिर उनको पाने के लिए जुट जाइए। सब कुछ मुमकिन है … कोशिश जारी रखिए।
Nostalgic
Lovely
Bahut badiya…..Sb kuch sahi kaha
मैंने तुम्हारी सच्ची कहानी पढ़ी मनीष और मेरी एक स्मृति प्रतिक्रिया हुयी मेरे अपने जीवन से।