व्यंजनों पर घमासान का समाधान

अधिकतर लोग जीने के लिए खाते हैं। कुछ खाने के लिए ही जीते है। आजकल कुछ लोग सिर्फ लड़ने के लिए ही खाने लगे हैं। वे जो खाते हैं, उसका कर्ज चुकाते हुए उसकी श्रेष्ठता के लिए लड़ते हैं। इससे देश में जारी विचारों की लड़ाई के बीच व्यंजनों का घमासान भी आए दिन होता रहता है। असली दोष तो टीवी वाले अंकल का है जो देश का जायका देश को बताने के नाम पर वर्षों तक छककर खाते रहे। उन्होंने अपना काम ठीक से किया होता तो ‘कौन व्यंजन किसका’, ‘कौन सबसे स्वादिष्ठ’ और ‘कौन सबसे पौष्टिक’ पर अब तक दूध का दूध और पानी का पानी हो गया होता। ऐसा हो न सका और व्यंजनों का विवाद आए दिन प्याज की परत जैसा उभरता है। व्यंजनों पर रूमाल फेंककर उसे अपना बताने और उसे श्रेष्ठ सिद्ध करने की जिद के बीच एक विरोधाभास यह है कि पूरे देश में पिज्जा, बर्गर और चाउमिन आदि भारतीय व्यंजनों पर बाबर जैसा सिद्ध हो रहे हैं जबकि देश का कोई क्षेत्र इन्हें अपना नहीं मानता है।
‘रसगुल्ला किसका’ विवाद को संयुक्त राष्ट्र संघ भी न सुलझा पाए। राष्ट्र संघ वैसे भी कितने मामले सुलझाता है। वो तो भला हो अमेरिका का जो विश्व शांति के नाम पर अपने बनाए भूतों का अपने तरीके से गाहे-बिगाहे ओझाई करता रहता है। ‘रसगुल्ला किसका’ पर आए दिन चमकती तलवारों के बीच एक मिठाई शांति का संदेश लेकर आती है। ‘यह किसकी है’ पर भी कोई विवाद नहीं होता क्योंकि बिहार में यह लौंगलत्ती कही जाती है, पूर्वांचल में लौंगलत्ता और देश के कुछ अन्य भागों में लौंगलत्तिका। अपने अपने नामों से तीनों क्षेत्र इसे अपना मान लेते हैं। इसी फॉर्मूले पर रसोगुल्ला बंगाल का माना जाए, रसागोला उड़ीसा का और रसगुल्ला शेष देश का। पूरे देश में मिलने वाले व्यंजनों को हर क्षेत्र में अलग अलग नाम देकर जारी या संभावित विवाद खत्म किए जाएं।
‘कौन व्यंजन अधिक स्वादिष्ठ’ तय करने के लिए एक देशव्यापी खाऊ सम्मेलन हो। देश भर में सौ-सौ श्रेष्ठ खाऊओं की कई टीमें बनायी जाएं। च्वॉयस ऑफ प्लेन्टी के मद्देनजर खाऊओं की टीम बनाना आसान नहीं होगा। एक नामांकन डिफॉल्ट भी रखा जाए, उसका जिसने यह बेहतरीन आइडिया दिया है। सर्वाधिक स्वादिष्ठ व्यंजनों के लिए हर क्षेत्र से नामांकन आमंत्रित किए जाएं। नामांकित व्यंजनों के समर्थक अपने अपने व्यंजन इन टीमों को फिरी में खिलाएं। जिस व्यंजन के समर्थक उसे खाऊओं को सबसे अधिक दिन तक खिला सकें, उसे आधिकारिक रुप से सर्वाधिक स्वादिष्ठ व्यंजन घोषित कर दिया जाए।
व्यंजनों पर हालिया घमासान तब शुरु हुआ, जब अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी को नोबल पुरस्कार मिला। बहुत लोग खुश हुए कि भारत को एक और नोबल मिल गया, कुछ लोग इसलिए खुश हुए कि जनता को ‘न्याय’ दिलाने में विफल रहे अभिजीत की मेधा के साथ न्याय हो गया और कुछ लोग इस कारण खुश हुए कि अभिजीत एक क्षेत्र विशेष के हैं या किसी मत विशेष के समर्थक समझे जाते हैं। वहीं कुछ लोग दुखी भी हुए क्योंकि उन्हें लगा कि उनके एक धुर विरोधी को लॉरेल मिल गया। कुछ मसखरे लोगों ने नोबल पुरस्कार को ही बिग बॉस के ट्रॉफी जैसा करार दिया। इसकी भरपाई करते हुए ये लोग कभी छेनू लाल छलिया पुरस्कार का महिमामंडन कर देंगे। बहरहाल, हम मुद्दे पर आते हैं।
‘हम माछ खाकर नोबल जीत जाते हैं’ से ढ़ोकला और ठेपला खाने वालों को ताना दिया गया। अपने माछ को सबसे स्वादिष्ठ तो प़ड़ोस से आकर भारत में हमारी छाती पर मूँग दल रहे बंधु भी बताते हैं। उन्हें तो अधिक नोबल मिलना चाहिए था ना? एनआरसी उन्हें वही स्वादिष्ठ माछ खाने के लिए उनकी घर वापसी शीघ्र कराए, हालांकि दीदी अपने स्वार्थ में उन्हें उस स्वादिष्ठ माछ से वंचित करना चाहती हैं। यही इंसानियत है?
माछ खाने से ही नोबल पाने का भरम रखने वाले यह भूल गये कि ढ़ोकला व ठेपला खाने वालों ने देश को राष्ट्रपिता व लौह पुरुष दिया, दो-दो प्रधानमंत्री दिया, अम्बानी दिया, अदानी दिया और गरीब पाकिस्तान पर रहम करते हुए उसे उसका कायद-ए-आजम दिया। यूपी कभी यह नहीं कहता कि उसने क्या खाकर देश को आधा दर्जन से अधिक प्रधानमंत्री और एक बिग बी दिया। यूनिवर्सिटी ऑफ कलकत्ता टॉपर देशरत्न डॉ राजेन्द्र प्रसाद खैनी खाकर ही भारत की संविधान सभा के अध्यक्ष व भारत के पहले राष्ट्रपति बन गये। सतुआ-भूँजा खाकर बच्चे आइएएस बन जाते हैं। दूध-दही खाने वाला हरियाणा भारत के लिए मेडल जीत लेता है। मक्के दी रोटी और सरसों दी साग से साड्डा पंजाब कनेडा तक धूम मचाता है। इडली खाने वाले कामराज ने तमिलनाडु की ही सेवा नहीं की बल्कि घाघ मोरारजी को दो बार रोककर ‘गुदड़ी के लाल’ और ‘गूँगी गुड़िया’ को पीएम भी बनवाया। डोसा खाकर पीवीएनआर ने देश की अर्थव्यवस्था बदल दी और पोहा-जलेबी वाले अटल ने देश की राजनीति। बड़ा पाव खाकर सचिन मास्टर ब्लास्टर बन गये और छोले-भटूरे खाकर कोहली विराट। और कितने उदाहरण गिनाएं?
लब्बोलुआब यह है कि देश में व्यंजनों पर युद्ध न हो। युद्धहीनता से बचने के लिए यदि व्यंजन युद्ध अवश्यम्भावी ही हो तो यह स्वादिष्ठ हो। स्वाद कम भी हो तो कम से कम इतना तीखा न हो कि देश में कटुता का माहौल बने। क्यों न हम यह मान लें कि देश भर के व्यंजन हमारी साझी विरासत का हिस्सा हैं। हम उन्हें आपस में मिल-बाँटकर खाया करें, हो सके तो भंडारे में और फिरी में।