मैं लेखक बनते बनते रह गया
स्कूली परीक्षाओं में गाय व डाकिया पर निबंध लिखने के लिए मैं ‘निबंध माला’ से रट्टा मारता था। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि लेखक बनने की नैसर्गिक प्रतिभा मुझमें कितनी थी। किन्तु समय के साथ अभ्यास करते करते मुझमे थोड़ा सा लेखकत्व आ गया या ऐसा कम से कम मुझे लगने लगा।
कॉलेज में कुछ दोस्त मेरे पास रंगीन लेटर पैड और उससे भी रंगीन और कभी कभी ग़मगीन दास्तान लेकर पहुँचने लगे। मुझसे अपेक्षा यह होती कि मैं हज़रात के जज़बात कागज़ात पर ऐसे उतारुँ कि मोहतरमात के हालात इश्क में बेकाबू हो जाएँ। मै गालिब का आह्वान करता और साहिर व नीरज का सुमिरन। कलम में स्याही की जगह लाल रंग के आलते का प्रयोग करके लिख डालता उनका हाल-ए-दिल। किन्तु मेरे दुर्भाग्य से वे कठकरेजियाँ नहीं पसीजतीं। इश्कजादे इसका ठीकरा मुझ पर फोड़ते। इस प्रकार कॉलेज में मुझे फ्लॉप लेखक करार दिया गया।
लेखकत्व की महत्वाकांक्षा में मैंने पत्र पत्रिकाओं का रुख किया। मैं उन्हें अपने उम्दा आलेख (मेरे अनुसार) भेजता। लौटती डाक से वे मेरे पास वापस आ जाते, संपादक के खेद पत्र के साथ। आलेख भेजने के क्रम में सिर्फ कुछ विस्फोटक पत्रिकाएँ छूट गयीं। इन्हे वेन्डर संवेदनशीलता के कारण छिपाकर बेचते थे तथा पाठक छिपकर बाँचते थे। मेरे अनन्य मित्र भूतनाथ का मानना है कि मेरे लेखक बनने का सपना पूरा होने में कृपा न आने का कारण यह था कि मैंने इन विस्फोटक पत्रिकाओं के लिए लेख नहीं लिखा।
हाँ, ‘संपादक के नाम’ पत्र में मेरा पत्र एक बार एक हिन्दी दैनिक में अवश्य छपा था। इस पत्र में मैने गदहों पर हो रहे अत्याचार पर आवाज उठायी थी। वहाँ भी मेरे नाम की जगह गलती से या व्यंग्य में वैशाखनन्दन छाप दिया गया। बहरहाल, इस बार भी मैं लेखक बनते बनते बाल-बाल बच गया।
इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया मेरी लेखकीय महत्वाकांक्षा के लिए वरदान बनकर आया। मैं भी अली अली कहकर ट्विटर पर कूद पड़ा पर हाल वही ढाक के तीन पात। आरटी व लाइक करना तो दूर, लोग मेरे ट्वीट्स को अनदेखा कर देते। कभी यदि गलती से देख लेते तो वे मेरा वज्र चहेटा करते, ट्वीट में गुणवत्ता अत्यधिक होने के कारण। एक प्रख्यात ट्वीटकार आदरणीय आचार्य जो ‘आलू-चना’ एनथुजियास्ट भी हैं, ने मुझे सहानुभूति पूर्वक समझाया, “तुम्हारी सोच सतही है और शब्द उटपटांग। ज्ञान है नहीं, दर्शन नदारद। वाक्य विन्यास टेढ़ा है और वाक्यों का शब्दार्थ बेमतलब। कोई भावार्थ न होने पर भी भावार्थ के नाम उन्हे बेच पाने का माद्दा तुममे है नहीं। इसलिए तुम अच्छे ट्विटकार या मिनी लेखक नहीं बन सकते।”
मैने ब्लॉगिंग में भी हाथ आजमाया। ब्लॉग का लिंक लिए ट्विटर पर लिंकन और टैगोर बना पर वह भी काम न आया। ब्लॉग को पढ़ना छोड़िए, ब्लॉग का लिंक क्लिक करने वाला एक भी साहसी न निकला, गोया उन पर परिन्दा के पर न मार सकने टैप सिक्योरिटी लगी हो। घर वालों और रिश्तेदारों को पढ़ाने की कोशिश करता तो ताना मिलता, “डॉक्टर-इंजीनियर तो बन नहीं पाए, चले हैं लेखक बनने।“ सुनकर दिल टूटता नहीं बल्कि फूट जाता।
एक अंतिम और मद्धिम सी आस लेकर आया lopak.org, जिसे मेरे कुछ मित्रों ने आरम्भ किया था। मैने बिना देरी किए लोपक को लेखन की सभी संभावित विधाओं की रचनाएँ ताबड़तोड़ भेज दीं। बहुत दिनों तक कोई उत्तर नहीं आया। जान-पहचान की पहचान काम पड़ने पर ही होती है। संपादक मंडल ने जान-पहचान की कद्र नहीं रखी। मेरी रचनाएँ खेद रहित अस्वीकृत कर दी गयीं।
मेरे सब्र का बाँध टूट गया। मैं संपादक मंडल से मुँहठोंठी पर उतर आया। संपादक मंडल के एक वरिष्ठ सदस्य ने नसीहत दी, “एक्शन, इमोशन या ड्रामा में से कुछ तो हो आपकी रचना में। आपकी कविता घटिया तुकबंदी है, जिसका मीटर नहीं बैठता। कहानी रूहानी या रूमानी न होकर बेमानी होती है। आपका हास्य कारुणिक है और करुणा हास्यास्पद। सटायर शिथिल हैं जिसमे सरकाज्म कम और फ्रस्ट्रेशन थोक में होता है। कुल मिलाकर कहें तो इनमे न तो दर्शन हैं और न ही प्रदर्शन। इन्हे छापकर हम लोपक का बंटाधार नहीं कर सकते।”
लोपक संपादक मंडल को खुश करने के कुछ तरीके मित्रों ने मुझे सुझाए, किन्तु मेरे पास संपादक मंडल को मनी ट्रैपित करने के स्रोत नहीं थे और हनी ट्रैपित करने के संसाधन। खुशामदश्री बनना भी मेरे काम न आया।
लेखकत्व की मेरी महत्वाकांक्षा सिद्ध होगी या नहीं, यह यक्ष प्रश्न था। मैं ज्योतिषी जी से मिला तो उन्होने सब कुछ कहा पर प्रश्न का उत्तर ‘हाँ’ या ‘ना’ में नहीं दे सके। सोखा, ओझा, बंगाली बाबा सबके टोटरम आजमाए पर लाभ कुछ न हुआ। एक दिन मैंने गुलाब के फूल की पंखुरियाँ तोड़ते हुए ‘मैं लेखक बनूँगा’ और ‘मैं लेखक नहीं बनूँगा’ का जाप भी किया। साठ रुपये के तीन गुलाब खर्च हुए पर जाप हर बार मंत्र नंबर २ पर पंखुरियों के अंत के साथ ही समाप्त हुआ। चौथा गुलाब खरीदने का हौंसला नहीं बचा था, पैसा भी नहीं।
फिर भी मैने लेखन जारी रखा। देवानंद ने अपनी अंतिम कुछ फिल्में जिस दर्शन से बनायी थी, उसे आदर्श मानकर मैं निरन्तर लिखता रहा। ये फिल्में देवानन्द बड़ी शिद्दत से बनाते थे पर इन्हे देखने का शौक कोई गलती से भी नहीं पालता था। अब मेरे सारे आलेख स्वांत: सुखाय ही होते हैं। यह आलेख भी अपवाद नहीं किन्तु आपके दुर्भाग्य से यदि यह प्रकाशित होकर आपके समक्ष जाए तो समझ लीजिएगा कि ‘बार ट्रैपित’ होकर संपादक मंडल ने अपना बार थोड़ा नीचे खिसका दिया है – “मैनुअली, आउट ऑफ अफेक्शन फ़ॉर मी।“