एक कप और

कलकत्ता के हरियाणा स्वीट्स के बाहर चाय की टपरी की चरमराती बेंच पर बैठे युवक ने एक और चाय माँगी, और मीठी मानो पब मे बैठा कोई शराबी एक और पेग माँग रहा हो। यह युवक अपना गम भूलने की कोशिश मे था। संस्कारी था तो बार/पब जाने की बजाय पंडित के दरबार मे चला आया था।
उसके सामने दो ख़ाली हो चुके ग्लास पड़े थे। एक अधनुचा समोसा भी था जिस पर मक्खियों ने अपना आसन जमा लिया था। युवक ने तीसरी चाय के इंतज़ार मे एक चार्म्स सुलगा ली और लंबे से कश के साथ अपने ग़म को धुंए मे उड़ाने लगा।
तो आखिर ऐसा क्या हुआ था जो वह इतना गमगीन था?
लड़का तेईस-चौबीस वर्ष का था। साधारण मगर आकर्षक व्यक्तित्व का धनी और मध्यमवर्गीय परिवार के उज्जवल भविष्य की आस था। उम्र और फ़िल्मों का असर था। इसकी नजर एक बहुत सुंदर दिखने वाली लड़की से टकरा गयी थी। सुबह दफ़्तर जाने के लिये जिस बस स्टॉप से बस पकड़ता था, वहीं पास वाली बिल्डिंग के तीसरे तल्ले के बरामदे पर खड़ी वो लड़की उसे दिखती थी और यह उसे नजर भर कर देखता था। धीरे धीरे हालात ऐसे हो गए कि यह बस स्टॉप पर ही बैठा रहता और एक के बाद एक बसें छोड़ देता । भले ही दफ़्तर मे बडे बाबू देर से पंहुचने के लिये इसको खरी खोटी सुना दे या नौकरी से निकालने की धमकी दें, उसे परवाह न थी।
सुंदरी को भी उस युवक का यूँ नज़रें भर भर देखना अच्छा लगता था। फिर याद दिला दूँ कि युवक संस्कारी था।सिर्फ़ उसकी सुंदरता को ही निहारता था। ना कभी उसने युवती की तरफ़ गंदे इशारे किये और ना ही उसे देख सीटी बजायी। यहाँ तक कि कभी उसे देख अभिवादन में हाथ भी नहीं हिलाया और ना ही कभी स्माइल ही उछाली। यहाँ तक कि बेचारा गुटखे की पीक भी सटक लेता था पर युवती के सामने कभी उसने बस स्टॉप को रंगीन नहीं किया।
सिलसिला कुछ महीनों यूँ ही चला पर आज कुछ नया हुआ। युवती उसके बस स्टॉप पर आने का पहले से ही इंतज़ार कर रही थी। युवक को देखते ही उसने बालकनी से हाथ हिलाया और उसे इशारे से बस स्टॉप के पास वाले चबूतरे की ओर जाने को कहा। कुछ मिनटों बाद युवक व युवती दोनो चबूतरे पर आमने सामने थे। लड़के ने संस्कार के अनुसार उसे देखते ही हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और अपना नाम बताते हुए युवती को अपना परिचय दिया। युवती जल्दी मे थी और उसने ज़्यादा कुछ ना कहते हुए उसकी तरफ़ एक लिफ़ाफ़ा बढ़ाया । युवक ने धड़कते दिल से उसे थामा । देखा कि यह विवाह की कुमकुम पत्री थी।
युवती ने कहा, “मेरी शादी मे जरुर आना।”
युवक पर मानो घड़ों पानी गिरा हो । हकलाते हुए बोला, “जी, जरुर आऊँगा। आप के होने वाले का नाम जाना पहचाना सा है।” युवक की ज़ुबान से कुछ खो देने का भाव साफ टपक रहा था।
युवती ने कहा, “काश आपने कभी कुछ बोला होता, कभी कुछ इशारा ही किया होता। ये नौबत ना आती।“
शादी मे ‘ज़रुर आने का’ दोबारा दबाव डालते हुए युवती चली गयी।
युवक ठगा सा खड़ा रहा। सामने मनसुख बार व रेस्तराँ था पर उस संस्कारी युवक के क़दम नहीं भटके। रजनीगंधा-तुलसी की जोड़ी को अपने होंठों से चूमते हुए वह पंडित की चाय टपरी की ओर बढ गया। अब वह मुक्त था। पंडित टी स्टाल पंहुचकर उसने गुटके की पीक से चितकबरी सड़क को रंगीन किया और ऊँची आवाज में बोला, “पंडित, एक रेगुलर।“
दावात्याग : यह न तो मेरी अपनी आपबीती है और न ही मेरे किसी जानने वाले की। हाँ, यदि आप इसके किरदार मे स्वयं को पाते है तो लगेगा कहानी जी उठी है।
लेखक: मनुभाई सिंगापुरी (@manu_bajaj)