उफ्फ, एक और आन्दोलन!
देश में आन्दोलन घोटाला का पर्याय हो चुका है। अधिकांश आन्दोलनों के कारण, उनके तरीके, उनकी प्रवृत्ति, उनका कवरेज, उनसे निबटने की विधियाँ, उनकी परिणति सब घोटाला हैं। ऐसे आन्दोलनों को स्वत: स्फूर्त बताना महाघोटाला है। यदि आन्दोलन कभी स्वत: स्फूर्त हुआ भी तो वह दम तोड़ने के डर से अपने उपर एक नेता थोप लेता है। कई बार आन्दोलन का बंटाधार करने के लिए नेता ही स्वत: संज्ञान लेते हुए आन्दोलन पर चेंप हो जाता है। कभी कभी नेता आन्दोलन से पहले ही क्रांतिकारी के गेट-अप में आ जाता है, सह-कलाकार बाद में आते हैं और आन्दोलन का मंचन होता है। कभी आन्दोलन के प्रायोजक सूचना माध्यमों के अभाव को अपना अस्त्र बनाते थे। आज सूचना माध्यमों की अधिकता उनका ब्रह्मास्त्र बन चुकी है। कम ही आन्दोलन इन प्रवृतियों के अपवाद हैं। लगभग हर आन्दोलन के लिए एक बात सत्य है – मजा मारते हैं गाजी मियाँ और मार खाता है डफाली।
आज देश ने स्वयं को आन्दोलन में झोंक देने का मन बना लिया है। धू धू जलती सार्वजनिक और निजी सम्पत्ति, पुलिस पर होते आक्रामक पथराव, लगाए जा रहे अति उत्तेजक नारे एवं भीड़ नियंत्रण के लिए पुलिस द्वारा छोड़े जा रहे आँसू गैस के गोले और लाठी चलाए जाने से एक्शन भरा रोमांच मिल रहा है। जारी आन्दोलन में मुँह पर सीएए है लेकिन मन में एनआरसी। आरोप है कि सीएए धर्म के नाम पर भेदभाव करता है और समानता का अधिकार छीनता है। समानता का अधिकार तो काँग्रेस ने दिया था, आपातकाल में। भुईयाँ भोपाल से लेकर कलुआ कंगाल तक की सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी गयी। जो मिला, उसका छेरुआ कर दिया गया। बड़े नेताओं का ऐसा हरदी-गुरदी किया गया कि जेल में वे बाहर का उजाला देखने की आस छोड़ चुके थे। मजाल है कि कोई जाति-धर्म के भेदभाव का आरोप लगा दे? तब भी सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन हो गया। क्रांति हुई, बस उसका सम्पूर्ण होना शेष रह गया। शेष इतिहास है। उस इतिहास के कुछ दंश देश आज तक झेल रहा है।
आज सीएए में बहुसंख्यकवाद और असमानता देखने वाले पीछे घूमकर एक बार देख लें। सीएए से पड़ोसी देश के प्रताड़ित लोगों का फायदा हो रहा है लेकिन किसी की कीमत पर नहीं। बहुसंख्यकवाद का अन्याय राजा साहब ने किया था, मेधा की कीमत पर। किसी राजनीतिक दल ने विरोध का साहस नहीं किया। राजा साहब की डायरी में कैद भ्रष्टाचार से जनता झांसे आ गयी। राजा साहब के माथे मऊर चढ़ गया लेकिन हरि भजन को आए राजा साहब कपास ओटने लगे। उन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशों पर हाथ साफ करके एक असफल क्रांति अपने उपर थोप ली। उद्वेलित मेधा की असफल क्रांति के ताप से राजा साहब राजनीतिक शहादत को प्राप्त हुए लेकिन अपने पीछे छोड़ गये अनेकों मंडल क्षत्रप जो आज तक मंडल से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं। मंडल के समानान्तर आरम्भ हुए अयोध्या आन्दोलन की बात करें तो यह कम से कम अपनी परिणिति तक तो पहुँचा। इसका क्रेडिट आप आन्दोलन को दें या अदालत को, मर्जी आपकी है।
आज उस आन्दोलन की चर्चा स्वाभाविक है जिसने क्रांति के डिजिटल स्वरूप में जन्तर-मन्तर से भ्रष्टाचार भगाने के लिए अलादीन का चिराग दिखाकर देश को लुभाया। छोटे मोटे अनशनी को देश की सनसनी बनाकर पेश किया गया। क्रांति की पटकथा लिखी गयी और उसका कुशलता से मंचन किया गया। दिल्ली लुभ गयी और हमें दिल्ली का मालिक मिला। भ्रष्टाचार का मुद्दा या तो गौण हो गया या भ्रष्ट होना या न होना इस बात पर निर्भर हो गया कि आप दिल्ली के मालिक के समर्थक हैं या विरोधी। यह क्रांति भविष्य की क्रांतियों के लिए एक सकारात्मक संदेश छोड़ गयी कि यदि स्क्रिप्ट और मंचन बढ़िया हुआ तो कृपा जरुर आएगी। बस आपमें गाजी मियाँ बनने की काबलियत हो और कुछ लोगों को डफाली बना देने की योग्यता। आज विपक्ष गाजी मियाँ बनने की फिराक में है, डफाली थोक में दिख रहे हैं।
सीएए पर लाभान्वित होने वाले प्रताड़ितों को समर्थन जुलूस निकलना था लेकिन हो कुछ और रहा है। क्यों? प्रस्तावित एनआरसी खौफ पैदा कर रहा है या वे छह साल से चल रही उस ‘प्रतिकूल’ सरकार का विरोध कर रहे हैं जो यह धारणा झूठलाना चाहती है कि देश के संसाधनों पर ‘मौनी बाबा प्रदत्त’ पहला हक उनका है। आगजनी और पत्थरबाजी के बीच मोदी-शाह के साथ-साथ हिन्दूओं से आजादी के नारे लग रहे हैं। क्या ही अच्छा होता कि वाघा बॉर्डर को एक-दो दिन के लिए ‘वन वे’ खोल दिया जाता। कपड़ों से प्रदर्शनकारियों को पहचानने का बयान प्रधानमंत्री को देना चाहिए था या नहीं, इस पर गुणा-भाग होता रहे लेकिन यह झूठ नहीं है। जामा मस्जिद के पास हुए प्रदर्शन में भीम आर्मी चीफ के जाने और कुछ अन्य ग्लैंमरस पोस्टर बॉय्ज और गर्ल्स के क्रांतिवीर बनने से भी यह तथ्य झुठलाया नहीं जा सकता।
असम उबला और शांत हो गया। बंगाल की आगजनी, पत्थरबाजी और हिंसा को छोड़िए, देश की संप्रभुता को ताक पर रखते हुए घुसपैठियों के लिए ममतामयी मुख्यमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में जनमत संग्रह कराने की माँग की है। ऐसा जनमत संग्रह हो जाए तो परिणाम क्या होगा? फिर जामिया से हिंसक प्रदर्शन का आरम्भ हुआ। पुलिस गयी तो प्रदर्शनकारी मासूम बन गये और आगजनी को पुलिस का किया धरा बता दिया। पुलिस ने उनकी जोरदार खबर ली। एक गलती हो गयी कि पुलिस ने अगले दिन मासूम बनकर यह नहीं कहा कि चोटिल हुए छात्र आपसी लसराकुट्टन में घायल हुए हैं। इसके बाद यूपी और देश अन्य के भाग जल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने असहमति को लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व कहा है लेकिन ये तो सेफ्टी वॉल्व में पलीता लगाकर बौराए हुए हैं। सोशल मीडिया पर सनसनी फैलाने के लिए सिविल वार का जुमला उछाला जा रहा है। हकीकत यह है कि ऐसा करने वाले दो घंटे बिना बिजली, चार घंटे बिना इंटरनेट और छह घंटे बिना रास-रंग के नहीं रह पाएंगे, सिविल वार का घंटा भी नहीं लड़ेंगे। कल्पना के डरावने घोड़े दौड़ाते हुए नागरिकता छीने जाने और डिटेंशन कैंप में डाले जाने की बात की जा रही है।
उधर सल्किंग सिन्हा ने आन्दोलन को 1974 के छात्र आन्दोलन जैसा बताया है और इसे ‘बिगनिंग ऑफ द एंड’ बताया है। गलत मत समझिए। उनका मतलब यह हो सकता है कि यह अकारण होने वाले छद्म आन्दोलनों की प्रवृति के अंत की शुरूआत है। यदि ऐसा है तो उनके मुँह में घी शक्कर क्योंकि 5 ट्रिलियन इकॉनमी का लक्ष्य वाली खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को रिवर्स गियर में डालना देश अफोर्ड नहीं कर सकता।