दिल्ली से आइजॉल: भाग-1
सुबह सात बजे की फ्लाइट लेनी थी, इसलिए रात नींद में भी जगते हुए ही कटी। सुबह तीन बजे उठना था, जगती नींद के कारण ढाई बजे ही उठ गया। बिजली नहीं थी। जिन जिन माननीयों को कोस सकता था, उन्हें कोसकर इमरजेन्सी लाइट की रौशनी में तैयार होने लगा। कैब बुलाकर निकलने को हुआ कि बिजली आ गयी। मन हुआ कि पूछ लूँ, “तुम्हारे बिना महफिल सूनी थी क्या?”
एयरपोर्ट पहुँचा और औपचारिकताएँ पूरी की, मेरा मतलब है बोर्डिंग पास लिया और ‘लंझारी’ देते हुए सुरक्षा जाँच में सफल रहा। इंटरनेट सर्फ करके और एयरपोर्ट के ऐश्वर्य में डूबकर बोर्डिंग तक का समय काटा। हवाई जहाज में अपनी सीट पर बैठा ही था कि ट्विटर के प्रभावशाली व्यक्तित्व शैलेश पाण्डेय अपनी पत्नी समाजसेवी तेम्तसुला जी और नन्ही बिटिया संग आए, दुआ-सलाम हुआ। वे लोग गुवाहाटी जा रहे थे। मुझे गुवाहाटी से आइजॉल की फ्लाइट लेनी थी। इसके थोड़ी देर बाद मुस्कुराते हुए एक नेतानुमा बुजुर्ग आए। लग रहा था कि मैं इन्हें पहचानता हूँ। दिमाग पर जोर डाल ही रहा था कि अंग्रेजी और अंग्रेजी एक्सेन्ट वाली हिन्दी की उद्घोषणा के पार्श्व में विमान परिचारिकाओं का डेमो आरम्भ हो गया। विमान अब टेक ऑफ कर चुका था।
मेरी बगल की सीट पर बैठे सज्जन अब भी मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। एक दो लोग उन्हें प्रणाम भी कर चुके थे। मैं सोच ही रहा था कि ये कौन हैं, तभी उनके द्वारा लायी गयी ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की प्रति पर नजर पड़ी जिसके मुख पृष्ठ पर उनका फोटो छपा था और नीचे परिचय लिखा था। थोड़ी ही देर में मैंने उनसे पुष्टि करवा ली कि वह असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ही हैं। उनसे हल्की फुल्की बातचीत भी हुई। विमान की खान-पान सेवा के बीच तरुण गोगोई थोड़े अस्वस्थ हो गये। इनकी नाक से थोड़ा खून रिसने लगा। परिचारिकाओं ने उन्हें हरसंभव तात्कालिक चिकित्सा दी और गुवाहाटी पहुँचकर डॉक्टर से दिखाने की सलाह भी।
गुवाहाटी में डिबोर्ड करने पर तरुण गोगोई एक एयरपोर्ट स्टाफ की मदद से बस में आए। वहाँ भी मेरी बगल में बैठ गये। उनसे अनुमति लेकर मैंने एक सेल्फी ले ली। चूँकि वह अस्वस्थ और कमजोर दिख रहे थे, इसलिए बस से उतरते हुए मैंने उनका बैग ले लिया। हम एयरपोर्ट बिल्डिंग पहुँचे। वहाँ उनके तीन-चार पालक-बालक खड़े थे। दिल्ली एयरपोर्ट पर आइपी भी नहीं दिखने वाले गोगोई साहब गुवाहाटी एयरपोर्ट पर वीवीआइपी हो चुके थे। एक पालक-बालक ने उनका बैग ही नहीं बल्कि मेरा बैग भी अपने हाथ में ले लिया। स्ष्टीकरण देकर मैंने अपना बैग वापस लिया और नये बोर्डिंग पास और सुरक्षा जाँच के लिए बढ़ चला।
औपचारिकताएँ पूरी करके ट्विटर खोला तो वह बंद मिला क्योंकि सीएए विरोधी आन्दोलन के कारण गुवाहाटी में बंद इन्टरनेट सेवाओं की बहाली अब तक नहीं हुई थी। एयरपोर्ट के वाई-फाई से कतरा-कतरा इन्टरनेट चुराकर मैंने अपना टाइमपास किया और अंत में आइजॉल की उड़ान के लिए विमान में बैठा। अच्छे भले भरे विमान में मिजो चेहरों के बीच इक्का-दुक्का मेरे जैसे भी थे। घंटे भर की उड़ान में हम लेंगपुई एयरपोर्ट पहुँच गये।
लेंगपुई एयरपोर्ट से बाहर निकलते हुए मैंने सुरक्षा चेकपोस्ट पर 170 रुपये देकर अपना सात दिनों का ‘इनर लाइन परमिट’ बनवाया और बाहर निकला। एक सज्जन मेरे सरकारी मिजो मेजबान की ओर से मेरे नाम का प्लेकार्ड लिए खड़े थे। मैंने दूर से ही यह समझ लिया कि वह बिहारी हैं। पास पहुँचते ही मैंने पूछा; “आपका नाम क्या है?” उत्तर मिला; “मेरा नाम हुआ वैद्यनाथ राय।“ मैंने प्रतिप्रश्न किया, “आप पटना के हैं?” राय जी ने विस्मित होकर पूछा, “आपको कैसे पता चला?” मैंने नहीं बताया कि ‘नाम हुआ …’ से पता चला, और कहा कि चलिए। पता चला कि वह विभाग की तरफ से सिर्फ रिसीव करने आए हैं और मुझे आइजॉल ले जाने के लिए एक ड्राइवर पार्किंग में गाड़ी लिए खड़ा था। ड्राइवर ने मिलते ही अंग्रेजी में बोलते हुए अपना नाम बताया – जेफरी। उसने लगे हाथों दावात्याग भी टाँक दिया कि उसे हिन्दी नहीं आती।
लेंगपुई से आइजॉल के लिए हम निकल पड़े। किसी प्रशिक्षु हलवाई की बनायी जलेबी जैसी सड़क पर चलते हुए उँची पहाड़ियों और गहरी घाटियों के मनोरम सुन्दर दृश्य मंत्रमुग्ध कर रहे थे। जगह जगह सुरक्षा बलों के चेकपोस्ट या कार्यालय दिखे। आइजॉल ज्यूलॉजिकल पार्क के आस-पास कहीं जेफरी ने सड़क बदल दिया। अब वह एक अधिक सँकड़े रास्ते पर चलने लगा क्योंकि आगे कहीं कोई मृदु पहाड़ खिसककर सड़क पर आ गया था और मुख्य सड़क जाम थी। इस सँकड़ी सड़क पर भी सुन्दर दृश्य ही थे किन्तु जब सामने से कोई गाड़ी आती तो स्थिति ऐसी बन जाती जैसी एक छोटा चादर ओढ़कर सोए दो लोगों की होती है। किसी एक ने चादर अधिक खींच लिया तो दूसरा एक्सपोज हो जाता है। यहाँ एक्सपोज होने का मतलब हजारों फीट की खाई थी जिसका डर सिर्फ मुझे लग रहा था, जेफरी बेफिक्र गाड़ी चलाते हुए हिन्दी गाने सुन रहा था। ये गाने उसने मुझ पर फेवर करते हुए चलाए थे वरना वह अंग्रेजी गाने ही सुनता। हल्की-फुल्की बातचीत के बीच हमने लगभग 30 किमी की दूरी लगभग सवा घंटे में तय की।
चार बजे शाम मैं अपने मिजो मेजबान के दफ्तर पहुँचा। वहाँ एक-डेढ़ घंटे की मीटिंग हुई, ऑमलेट के साथ चाय-चुई का दौर चला। अगले दिन उस विभाग में एक बड़े अधिकारी का विदाई समारोह था। मेरा रिएक-त्लांग घूमने का कार्यक्रम बनवा दिया गया और उससे अगले दिन हमारी बैठक निर्धारित हुई। मेरे पिक-ड्रॉप का निर्देश पा चुके जेफरी ने मुझे मेरे होटल ‘द इस्क्वायर’ लाकर छोड़ दिया और सुबह में 10 बजे आने का वादा किया। उसके जाने के बाद मेजबान विभाग के एक अधिकारी आए और मुझे लेकर बाहर निकले।
घूमने के क्रम में मैं उस अधिकारी के घर भी गया। पाँच तल्ले की बिल्डिंग में इनके सास-ससुर, साले व साली का एक-एक तल्ला था। एक तल्ले पर इनका परिवार रहता था जिसमें सात छोटे-छोटे कमरे थे, पाँच बच्चों के लिए, एक इनके लिए और एक अतिथि के लिए। घर सड़क से नीचे था और पीछे से ऐसा दिखता था जैसे हवा में टँगा हो, यदि आप कंक्रीट पिल्लर्स को इग्नोर कर दें। क्रिसमस की तैयारी में जुटे पूरे परिवार से बेहद अपनत्व के बीच परिचय हुआ। पता चला कि इनकी एक बहु उस होटल की मैनेजर है जिसमें मैं रुका हूँ। पाँच बच्चों में सिर्फ तीसरा बेटा ही विवाहित था। बड़ी बेटी सत्कार उद्योग में लंदन से डिग्री लेकर आयी है पर एचडीएफसी बैंक में काम करती है। एक बेटा जिम खोलना चाहता है। शेष तीन पढ़ाई कर रहे हैं, उनमें से एक शिमला में।
होटल लौटकर मैंने मेनू पर निगाह दौड़ाया। कुछ खास समझ नहीं आया तो चावल के साथ मैंने फिश-करी मँगायी। डिनर का कोरम बस पूरा किया। खाना कतई अच्छा नहीं लगा लेकिन होटल स्टाफ के सत्कार ने दिल जीत लिया। सोने से पहले मैंने टीवी खोला। लगभग वे सारे चैनल दिखे जो दिल्ली में दिखते हैं, कुछ अतिरिक्त भी दिखे। टीवी चलता रहा और पता नहीं कब मुझे नींद आ गयी।
क्रमश: …