दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम: एक विवेचना
दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम आ चुके हैं। आम आदमी पार्टी की सीटें 67 से घटकर 62 हो गयी हैं, जिसका उसे खास दुख नहीं होगा। भाजपा ने अपनी सीटें 3 से बढ़ाकर 8 कर ली हैं, लेकिन शायद ही उसे इसकी खुशी हुई हो। भाजपा को वोट प्रतिशत बढ़ा है पर वह आम आदमी पार्टी से बहुत पीछे है। काँग्रेस ने अपना प्रदर्शन सतत रखा और इस बार भी खाता खोलने में विफल रही।
स्वाभाविक है कि आम आदमी पार्टी इसे अपनी नीतियों, अपने प्रचार अभियान और नेता की जीत मानेगी। भाजपा हार के कारणों की समीक्षा करेगी लेकिन काँग्रेस क्या करेगी? यह तय करना मुश्किल है कि काँग्रेस अपने प्रदर्शन को हार मान रही है या जीत। परिणाम काँग्रेस की जीत इस तरह से है कि उसका ‘भाजपा हराओ’ अभियान दिल्ली में सफल हुआ, हालाँकि इसमें बहस की गुंजाइश है कि भाजपा की हार में उसका योगदान कितना है और यदि है तो क्या वह सही है और क्या वह काँग्रेस के हित में है। इस जीत के बाद आम आदमी पार्टी के निर्विवाद रुप से दिल्ली में एक स्थायी ध्रुव बन जाने से यह भी तो हो सकता है कि बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे अनेक राज्यों की तरह वह दिल्ली में भी पूरी तरह अप्रासंगिक हो जाए और भविष्य में वापसी की किसी संभावना पर ताला लग जाए। बहरहाल, काँग्रेस जिस तरह दिल्ली में चुनाव लड़ी, वह ऐसा ही था जैसे उसका आम आदमी पार्टी के साथ कोई अघोषित गठबंधन हो।
इसमें कोई किन्तु-परन्तु नहीं हो सकता कि दिल्ली में भाजपा की करारी हार हुई है। यह अवधारणा कमजोर पड़ती जा रही है कि भाजपा अजेय है। हाल में कई राज्यों में उसे सत्ता गँवानी पड़ी है। आश्चर्य इस बात का है कि यह सब उस काल में हो रहा है, जब भाजपा मन-कर्म-वचन से अपने कोर मुद्दों से ऐतिहासिक निकटता प्रदर्शित कर रही है और सीएए, धारा 370 और राम जन्मभूमि जैसे मुद्दों पर देश में राष्ट्रवादी भावनाओं का ज्वार आया हुआ है। विरोधी इस हार को इन भावनाओं की और उन कोर मुद्दों की हार बताने से भी बाज नहीं आएंगे। इस परिणाम के बाद भाजपा के तेवर क्या होंगे, यह देखने वाली बात होगी। अपने चुनाव अभियान में आम आदमी पार्टी की तथाकथित फ्रीबीज पर भाजपा ने खूब हमला किया लेकिन धीरे से उसने भी मतदाताओं को लुभाने के लिए ऐसे वादे कर डाले।
लोकतंत्र में चुनाव हारने वाले की नीति और रणनीति को खराब मानने का देश में बहुत पुराना फैशन रहा है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा से चूक हुई है। राष्ट्रीय मुद्दों का झुनझुना राज्यों के चुनाव में न चलता है और न दिल्ली में चला जबकि भाजपा इसी के भरोसे ताल ठोकती रही। वह आम जन के अन्य मुद्दों से जाने-अनजाने दूर हो गयी। कुछ लोग भाजपा नेतृत्व के लिए कोई स्थानीय चेहरा नहीं खोज पाने पर भी ठीकरा फोड़ेंगे लेकिन महाराष्ट्र और झारखंड में चेहरा सामने करके भी भाजपा चुनाव हारी है। अलबत्ता, यह सत्य है कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के बावजूद ‘मोदी नाम केवलम’ की एक सीमा है। साथ ही, भाजपा का पूरा चुनावी अभियान देखकर ऐसा लगा कि आरम्भ में वह चुनाव लड़ती हुई दिखी ही नहीं, जैसे आम आदमी पार्टी को वॉक ओवर मिल रहा हो। अमित शाह ने अरविन्द केजरीवाल को शाहीन बाग आने की चुनौती दी तो भाजपा में जोश भर गया और इसके बाद शायद वह कुछ अधिक ही लड़ने लगी। आते-जाते ओपिनियन पोल्स से उसका आत्मविश्वास डगमगाता भी रहा। एग्जिट पोल के बाद आत्मविश्वास पूरी तरह जाता रहा। देश में विरले ही कोई राजनीतिक दल हार के कारणों की ईमानदार समीक्षा करता है। आइए, आशा करें कि भाजपा इस धारणा को झुठलाएगी।
आम आदमी पार्टी की जीत इसलिए बड़ी है कि इस जीत के लिए उसे कम से कम तीन बाधाएँ पार करनी थी। पाँच साल की एंटी-इनकमबेन्सी से उसे निबटना था। दूसरी अपने इस खंड़ित दावे को उसे डिफेन्ड करना था कि वह राजनीति बदलने आयी है और वह अन्य दलों से भिन्न है क्योंकि पिछले पाँच सालों में आन्तरिक लोकतंत्र, पारदर्शिता और शुचिता में वह किसी भी राजनीतिक दल से स्वयं को बेहतर दिखाने में असफल रही है। तीसरी और सबसे बड़ी चुनौती थी शाहीन बाग प्रदर्शनों और सीएए से उपजे हालात से किसी संभावित ध्रुवीकरण को रोकना। येन-केन-प्रकारेण वह इन तीनों चुनौतियों से निबटने में सफल रही। थोड़ा श्रेय आम आदमी पार्टी के राजनीतिक कौशल को जाएगा और थोड़ा भाजपा की गलतियों को।
चुनावों में वह पार्टी जीतती है जो अपने मुद्दों पर चुना करवाने में सफल रहती है। मोदी-शाह जोड़ी की सफलता का यही राज रहा है। आम आदमी पार्टी भी यह चुनाव अपने मुद्दों पर कराने में सफल रही। मुद्दे थे बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य। इस बात पर बहस हो सकती है कि इन मुद्दों पर आम आदमी पार्टी की सरकार का योगदान कितना है पर यह तय है कि चुनाव इन्हीं मुद्दों पर हुए और जनता ने आम आदमी पार्टी के दावों का प्रापण किया।
पिछले कुछ महीनों से आम आदमी पार्टी के सर्वोच्च नेता लगातार यह प्रयास कर रहे थे कि वह पार्टी की कलही छवि से निजात पाएं, टकराव से दूर रहें। इसमें वह लगभग सफल रहे। उन्होंने प्रधानमंत्री की लोकप्रियता देखते हुए उन पर सीधा हमला करने से परहेज किया। लेकिन पुरानी आदतें इतनी आसानी से नहीं जातीं। चुनाव समाप्ति के तुरन्त बाद ईवीएम पर बिना वजह कींचड़ उछालना आरम्भ गया। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में संस्थाओं के क्षरण का विलाप और संस्थाओं पर कींचड़ उछालने का काम साथ-साथ हो रहा है। आशा है कि इस दूसरी जीत के बाद आम आदमी पार्टी अधिक जिम्मेदारी व परिपक्वता दिखाएगी और दिल्ली को एक बेहतर सरकार देगी।