कॉमरेड केसरिया
यह कहानी उस दौर की है जब लडकियाँ ‘बोल्ड और साइज़ ज़ीरो’ नहीं, शर्मीली और गदराई होती थीं। उनका जीन्स से वास्ता नहीं था और दुपट्टे को वे अनिवार्य समझती थीं। लड़के तब ‘कूल डूड’ नहीं बल्कि एक नंबर के हरामी हुआ करते थे। वे ‘इव टीजिंग’ और ‘स्टॉकिंग’ नहीं बल्कि छेड़खानी करते थे, चक्कर काटते थे।
तब कानपुर वैसे तो मजदूरों और उनके कम्युनिस्ट नेताओं का शहर हुआ करता था पर इस दौर के लड़कों को इस शहर के पिट चुके मजदूर नेताओं की भाषणबाज़ी से घंटा मतलब था। हालाँकि कम्युनिस्टों के नारे ‘काम के घंटे चार करो, दूना रोज़गार करो’ को कनपुरिया लौंडे अपने शहर की बिगड़ी अर्थव्यवस्था का रामबाण इलाज़ मानते थे और शहर की ‘गंगा-जमुनी’ तहज़ीब को लौंडियाबाजी का स्कोप बढ़ाने का एक औज़ार।
दौर भी क्या खूब था। समय ने करवट बदली थी। भारत की अलसाई जवानी को अँगड़ाई आयी थी। बात अगस्त के महीने की थी। कानपुर शहर सावन, गुड़िया, नागपंचमी आदि मनाकर फ़ारिग ही हुआ था कि सद्दाम हुसेन ने कुवैत की मारने की पुरजोर कोशिश की। बुश सीनियर को गल्फ़ में चौड़े से उतरने का मनचाहा मौका मिल गया और फिर अमेरिका ने इराक़ पर डेमोक्रेसी बरसाने की शुरुआत कर दी।
शहर के कुछ मोहल्लों में सद्दाम हुसेन के बड़े बड़े कट-आउट्स दिखने लगे थे। इन पर बिजली के बल्बों का झालर लगाकर सद्दाम की खलीफ़ागिरी चमकाई जा रही थी। खलीफा तो सद्दाम थे ही। तभी तो वह अमेरिका के डेमोक्रेसी की बमबारी के जबाब में मेहरी का खीस डेहरी पर उतारते हुए इस्रायल पर ढ़ेलवाही कर रहे थे। इस्रायल भी कंबल ओढ़कर घी पीते हुए अमेरिकी डॉलर बटोर रहा था।
खैर, हम मुद्दे पर आते हैं। डिफेन्स कॉलोनी एक टिपिकल ‘गंगा-जमुनी’ बस्ती बन चुका था। नए बसने वाले लोग या तो चमड़ा-मिल मालिक थे या फिर उनके सप्लायर्स। पुराने बसे लोग भी इस वीरान मोहल्ले में आबादी बढ़ने से खुश थे। इसी मोहल्ले के एक उभरते हुए युवा नेता थे मुन्ना ‘सुकला’ जो डीएवी कॉलेज से बीए करने का ‘काम’ कई साल से कर रहे थे। सुकला जी सिटी बस नंबर १६ से एलआईसी चौराहे उतरकर सेन बालिका, जुहारी देवी जाने वाली हर दर्शनीय लड़की को उसके कॉलेज तक ड्रॉप करने का शौकिया काम भी करते थे।
खाते पीते घर के मुन्ना सुकला विचारधारा से लेफ्टिस्ट हो गये थे, तब युवक अक्सर ऐसा हो जाया करते थे। वह सड़क के लेफ्ट किनारे झुण्ड में जाती लड़कियों को देख कर उनका हमकदम बनने के लिए अपनी लूना लेफ्ट की ओर मोड़ देते थे। गंगा-जमुनी का असर उनके लिबास पर भी साफ़ दिखता था। वह सर्दी में यूपी ग्रामोद्योग की सदरी और वीपी छाप कश्मीरी टोपी पहनकर सज-धजकर घर से निकलते थे।
तो हुआ यूँ कि जुहारी देवी तक कन्याओं को लिफ्ट देते देते छरहरी और गोरी गौहर आफ्शां से सुक्ला जी के नैना चार हो गए। वैसे नैना तो सोलह-बीस हुए होते पर सुक्ला जी की दाल चार पर ही गली। कुछ दिन नैनन के बाण चले। सुक्ला जी अतिरिक्त चक्कर लगाने लगे। हुस्न की तारीफ के साथ आह का दौर वाह तक पहुँचा। तीखे नैन नक्श वाली आफ्शां भी कब तक होनी को टालतीं, तारीफ पर पिघल ही गयीं। आर्चीज़ कार्ड्स के आदान-प्रदान के साथ प्रेम औपचारिक हो गया। फिर शुरु हुआ एलआईसी बिल्डिंग के पीछे वाली प्रेम गली में मिलने-जुलने का दौर। दोनों साथ में चाय-समोसा खाते हुए इश्किया बतरस में गोते लगाने लगे। सुक्ला जी अपने लेफ्टिस्ट सपनों को रात के अंधेरे में अपने ही हाथ से हवा देने लगे।
देश में रामजन्मभूमि आन्दोलन की शुरुआत हो चुकी था। कानपुर में बजरंगियों का उदय हो गया था। लेफ्टिस्ट और गंगा-जमुनी सोच वाले बुज़ुर्ग और युवा पान-दूकान, चाय की टपरी और टेम्पो आदि में इस ख़तरे से सबको आगाह करते रहते थे। सुकला जी इस कार्य में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। वह जन्मभूमि पर अस्पताल, पुस्तकालय और न जाने क्या क्या बनवाने के समर्थक थे। लेफ्टिस्ट सुक्ला जी प्रेम की लाली से और भी लाल हो चुके थे। एक बहस में लाल किताब का असर इतना जबर दिखा कि वह राम और सीता पर भी प्रलाप करने से भी गुरेज न कर सके।
अब ऐसा खराब समय और ऊपर से सुकला जी का परवान चढ़ता प्रेम स्थिति को नाजुक मोड़ पर ले जा रहा था। ज़ालिम जमाना उनका यह सर्वहारा सुख न देख सका। किसी बुर्जुआ दिलजले ने कन्या के ११ भाइयों में से एक, सबसे तगड़े और तेजतर्रार जावेद तक यह बात बहाने से पहुँचवा दी। जावेद वैसे तो लिबरल और साम्प्रदायिक सोच से काफ़ी ऊपर उठ चुके नौजवानों में उठता बैठता था। खुद ऐसा था या नहीं, यह चर्चा भटकाने वाली होगी। बात बहन के प्रेम सम्बन्ध की थी और वो भी मोहल्ले के किसी साथी के मुँह से सामने आई थी। घर में बताता तो अब्बू पहले उसको लतियाते कि दर्ज़न में एक कम भाई होते हुए भी बहन के कारनामे पर ध्यान क्यों नहीं दिया।
जावेद ने अब मामला अपने हाथ में लेने का फ़ैसला किया। उसने अपने करीबी लिबरल दोस्त रवीन्द्र सचान को गुपचुप तौर पर यह बात बताई जो फौज़ में जाने की तैयारी करने वाला कसरतिया जवान था। सुनते ही सचान आपे से बाहर हो गया, जावेद की दोस्ती में नहीं बल्कि अपनी खुन्न्स में। दरअसल, वह गौहर का साइलेंट प्रेमी था। दोनों मित्रों में प्लानिंग हो गयी। कुछ दिनों बाद धर्म की दीवार दिल की सीढ़ी लगाकर लाँघते हुए प्रेमी-प्रेमिका प्रेम-गली में परम पवित्र प्रेमालाप कर रहे थे। उसी समय जावेद और सचान वहाँ आ धमके और फिर तो सुकला जी की वो ‘गंगा जमुनी’ हुई कि उनकी नेतागिरी, प्रेम, सेकुलरिज्म, लिबरिलिज्म और कम्युनिज्म सब नाली के पानी में घुल गए और नाक के खून संग बह गए।
सदमे में सुकला जी कई दिनों तक दिखाई नहीं दिए। पूछने पर उनकी अम्मा कहतीं, “गाँव गवा है, आ जाई कुछ दिनन मा।” लेकिन सुकला जी कई महीने तक नहीं दिखे।
बरसात बीत गयी, जाड़ा निकलने को था। महीना था फरवरी और तारीख़ थी चौदह। शहर वालों के भाग्य में सुकला जी के दर्शन लिखे थे। सुकला जी प्रकट हुए लेकिन अब उनका भेष बदला हुआ था। उन्होने टशन वाली दाढ़ी में जीन्स-कुर्ता पहन रखा था, गले में केसरिया गमछा था, माथे पर तिलक और हाथ में डंडा। कंपनी बाग़ में वेलेंटाइन आसन कर रहे लड़के लड़कियों को पकड़कर जबरन विवाह करवाने के पुनीत कार्य में लगे सुकला जी नयी उम्र की नयी फसल टैप लग रहे थे।
कॉमरेड सुक्ला के लालपंथी तेवर के साक्षी रहे किसी पुराने परिचित से रहा न गया तो उसने पूछ ही लिया, “सुकला जी आप और ये सब?” सुकला जी बोले; “यार, गंदगी फैला रखी है। पूरे शहर में ‘लव-जिहाद’ के कितने मामले आ चुके हैं। आखिर अपना भी तो कोई फ़र्ज़ बनता है।”
लेखक: @cawnporiaah और राकेश रंजन
रेखाचित्र: सुरेश रंकावत (@sureaish)
दावात्याग: यह कहानी मूल रुप से लोपक (lopak.in) के लिए दिसम्बर 2018 में लिखी गयी थी। लोपक पर प्रकाशित कहानी का लिंक …. https://lopak.in/2018/comrade-kesariya/
बहुत सुंदर और बेहतरीन। आज की तारीख की के लिए विशेष, तौर पर उपहार।
धन्यवाद पवन जी।
कहानी का पार्ट 2 लिखिए। उपन्यास की संभावनाएं लघु कथा में सीमित करना मुन्ना सुकुल पर सरासरअन्नाय है।
पढ़ने और सराहने के लिए धन्यवाद डॉक्टर साहब। कहानी योजना के साथ नहीं लिखी गयी थी। क्या पता कि कभी धारावाहिक कथा श्रृंखला बन जाए या उपन्यास का रुप ही ले ले।
हाहा 😂