वो लिज़लिज़ी सी छुअन

होली का अगला दिन,पाँचवीं बोर्ड के एक्ज़ाम। रोज़ की तरह भोर में तीन-चार बजे ही उठा दिया गया। उस दिन मन पढ़ने का नहीं कर रहा था। एकाध घंटे बाद ही ‘जूली’ हमारी पोमेरियन दोस्त को घुमाने के बहाने निकल पड़े।
सदर कचहरी के ठीक सामने मामा जी का सरकारी घर था। आसपास थे झोपड़ीनुमा छोटे होटल्स। उन्हीं में से एक था हमारे ‘सेठ मामा’ का होटल। दिन भर भीड़ रहती। वहाँ चाय, मिठाई, समोसे, छोले और बहुत कुछ मिलता था। सेठ मामा मेरे मामा जी के बहुत भरोसेमंद थे। पाँच बेटियों, दो भाँजियों,भतीजियों और बहन वाले घर में पुरुषों की एंट्री नहीं थी। दरवाज़े की छोटी खिड़की से पूछताछ और रवानगी। बस सेठ ही अंदर आते। रात बेरात एक आवाज़ में सेठ मामा हाजिर। कभी जेनरेटर चलाने, सामान, दवा लाने या फिर कुछ खाने के लिए मँगाना हो। सेठ मामा मेरे मामा जी के दहिने हाथ थे। उम्र ३५-४० होगी, बीवी-बच्चे कहीं गाँव में थे। सेठ गाँव जाते तो हमारे बहुत काम रुक जाते थे। हम सब उन पर आश्रित हो चुके थे।
तो बात होली के बाद की….मुँह अँधेरे जूली को घुमाने का बहाना था। जैसे ही गेट के बाहर आते ही जूली चेन छुड़ा कर भाग चली। सामने सेठ मामा की दुकान जो थी। सेठ मामा बाहर टेबल निकाल रहे थे और जूली उन पर उछल रही थी। सेठ ने एक गुलाब जामुन जूली को काँच से निकाल कर खिलाया और वह खुशी से पूँछ हिलाने लगी। मैं गेट के बाहर …
आओ! तुम भी मिठाई खा लो।
नहीं मामा! ब्रश नहीं किया।
आ ना,शेर कौन सा ब्रश करता है।
और मैं लालची, दुकान के अंदर …
वो गुलाब जामुन लाए, मैंने हथेली आगे कर दी।
नहीं! मैं खिलाऊँगा।
और जबरन मेरे मुँह में मिठाई डालकर गले लगा लिया। वो छुअन बहुत गंदी सी थी…..लिज़लिज़ी सी। मैं खुद को छुड़ा रही थी और उसके हाथ नौ साल की पतली दुबली बच्ची के सीने पर पता नहीं क्या ढूँढ रहे थे। मैं बहुत डर गई थी। गले से आवाज़ नहीं आई। फिर भी मैंने सेठ को ज़ोर से धक्का दिया और घर की ओर भागी। जूली वहीं रह गई।
घर के दरवाजे पर ही माँ मिल गई जो शायद मुझे खोजने निकली थी। मैं लिपट गई…
डर गई ना अँधेरे से। मैंने कहा था मत जा पर तू सुनती कब है?
हाँ माँ! बहुत डर लग रहा था।
जूली आ गई और मैं काँप रही थी। माँ ने जब उजाले में मुझे देखा तो बोली-सच बता क्या हुआ? मैंने रोते हुए सब कुछ बता दिया। माँ का वो रुप पहली बार देखा, क्रोध, बेबसी, दया सब एक साथ। उसने मामा जी की दुनाली बंदूक उठा ली थी …
छोड़ूँगी नहीं कुत्ते को।
माँ को ऐसे देखकर मैं सहम गई थी। अच्छी बात यह थी कि मामा जी शहर से बाहर थे वरना अनर्थ होकर ही रहता। मामी जी दौड़ के आई और माँ के पैर ही पकड़ लिए।
मिसिर जी को मत बताना जिज्जी,वरना वो खून कर देंगे और फिर जीवन भर होंगे जेल में।
भाई का प्रेम भारी था। माँ बंदूक वहीं फेंक निकल पड़ी। फिर माँ और मामी ने वहाँ जाकर क्या किया, नहीं पता क्योंकि हमें ताले में बंद कर गए।
उस दिन के बाद महीने भर सेठ वहाँ नहीं दिखे। मामा जी आए और उनके भाई से पूछा तो पता चला गाँव में ज़रूरी काम से गए हैं। ये बात मामा जी तक कभी नहीं पहुँची पर इस घटना ने हमारी ज़िंदगी बदल दी। उस दिन पहली बार बेटी होने का अभिशाप समझ आया।मुझे हर आदमी से डर लगता।चाचा भी सिर पर हाथ रखते तो भाग जाती। मैं सबसे छुपना चाहती और सबसे बड़ी बात यह थी कि अब मैं खेलने भी नहीं जाती।
क्रिकेट टीम वाले सारे दोस्त लेने आते और मैं मना कर देती। माँ अब हम दोनों बहनों को एक पल भी अकेला नहीं छोड़ती।मैंने कई बार सोते हुए उनके आँसू अपने गालों पर महसूस किए थे। स्वयं से अधिक उन्हें घुटता हुआ देख रही थी मैं। मैं अब अपनी छोटी बहन की माँ बन गई थी। हर वक्त उस पर नज़र रखती। कहीं जाने नहीं देती और ना स्वयं जाती।
महीने भर बाद सेठ लौट आए पर हमारे घर आने की हिम्मत ना हुई। मैंने स्कूल जाने आने का रास्ता बदल दिया था। मैं उसे देख कर काँप जाती थी। माँ स्कूल छोड़ने और लेने जाने का काम भी करने लगीं। मेरा बचपन अब मुझसे छिन चुका था। सिर से पाँव तक ढके कपड़े पहनने लगी थी । बस कोई मुझे देखे ना।
एक दिन राजू आया। वह मेरी ही क्लास में था। पड़ोस में घर,पिताजी धोबी थे। हमारे कपड़े वहीं धुलने जाते। मामाजी ने राजू की पढ़ाई का जिम्मा लिया था। वह मुझे क्रिकेट खेलने के लिए बुलाने आया। मैं हमारी ‘कचहरी टीम’ की धुरंधर खिलाड़ी थी और ‘जिला परिषद टीम’ को हराने के लिए मेरा होना ज़रूरी था।मैंने मना कर दिया पर वह ज़िद्दी था। पूछने लगा कि मैं क्यों बाहर नहीं निकलती? मैंने उसे और अजय (भाई) को सेठ वाली पूरी बात बता दी। राजू के मुँह से पहली बार भयंकर गालियाँ सुनी थी मैंने।
तू चल हमारे साथ,बिना डरे…
एक तरफ़ अजय और दूसरी तरफ़ राजू मेरा हाथ कस के पकड़ के ले गए।
शाम का सन्नाटा था,सेठ दुकान समेट रहा था।
थूक साले के मुँह पर।
ये राजू था जिसने हिम्मत दी और मैंने थूक दिया और घर की ओर तेजी से भागी। वे दोनों उसे गाली पर गाली दे आए। अब डर कम हो गया था। आते जाते हम तीनों उसकी दुकान पर दूर से ही थूकते हुए आते। अब ये नियम था। ‘कुछ बड़ा करते हैं’ के तहत हमने सोच लिया था अपना बदला।
शाम को सब रसोई में होते जो पीछे की ओर थी। कचहरी में दिन में जितनी रौनक, शाम को उतना ही सन्नाटा। अजय जनरेटर के पास से डीजल का कनस्तर लाया। राजू ने सावधानी से सेठ की दुकान के पीछे वाला हिस्सा जो फूस से बना था,वहाँ छिड़क दिया। माचिस मुझे दी गई।
ले ले बदला …
और मैंने दुकान में आग लगा दी। उसके बाद हम तीनों तीन दिशाओं में रवाना। शोर उठा, बाल्टी, पानी, दमकल….उसका सामान आधा जल चुका था और मेरा कलेजा पूरा ठंडा हो गया था। बच्चों से खेल खेल में हो गया। तीनों को डाँट पड़ी पर हम एक दूसरे को देख मुस्कुरा रहे थे।
अगले दिन सुबह सेठ घर आया। उसे पता था कि मामाजी नहीं हैं। आते ही मम्मी के पैरों पर झुक गया।
दीदी!माफ़ कर दो,बहुत बड़ी गलती हो गई थी। मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ,प्रायश्चित करूँगा।
ऐसी गलती अपनी बेटी से कर लेते तुम? नहीं ना। जाओ…दुबारा मत आना।
और वो हमेशा के लिए चला गया।
पिछले साल राजू से मिली,टेलीफोन विभाग में है। एक बेटी-एक बेटा….बड़े हैं। भाभी जैसे ही चाय लाने गईं तो वह बोला, “तू बहुत बहादुर थी…सच।” बेटी का बाप बन के ही मैं भी यह बेहतर समझ पाया।
मेरी आँखों में आँसू आ गए थे। हर बेटी को बहादुर बनना ही पड़ता है..कोई गुंजाइश नहीं है।
और कल दिन में राजू का फोन आया।
सुन! सेठ मर गया।
कैसे?
दारु पीने से लीवर ने काम करना बंद कर दिया। ऐसा उसके बेटे ने बताया। सालों पहले की यह घटना एक एक कर आँखों के आगे घूम गई थी। सोचा था कि नहीं बताऊँगी पर यह चेतावनी है कि हम सब ऐसे सेठों पर नजर रखें ताकि कोई बचपन इनके हत्थे न चढ़े।