छटाक भर क्रिकेट
दिन भर आकाशवाणी से क्रिेकेट का आँखों देखा हाल सुनते मेरे पापा ने ही मेरे मन में क्रिकेट के प्रति प्रेम जगाया। बॉल बाई बॉल रोमांच से अनभिज्ञ मेरे नानाजी पिताजी से अक्सर कहते थे, “अंत में कौन जीता, कौन हारा सुन लीजिएगा।” क्रिकेट के प्रति उमड़ा हमारा प्रेम हम भाईयों को क्रिकेट के मैदान की तरफ ले गया पर बाधाएँ अनेक थीं। सेमर का बैट बनवाते तो वह कॉरकेट की भारी गेंद से फट जाता और शीशम का बैट रखते तो वह कॉरकेट की गेंद को फाड़ देता। लिटरली हममे से एक भाई बढ़ई के पास ही बैठा रहता था।
आकाशवाणी से सुशील दोषी और जसवन्त सिंह की जीवन्त कॉमेन्ट्री से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। स्लिप, गली, प्वाइंट, कवर, थर्ड मैन, मिड ऑफ, लाँग ऑफ आदि ऑफ साइड में होते हैं और शॉटलेग, स्कवायर लेग, मिड ऑन, लाँग ऑन आदि ऑन साइड में, यह हमें पता था। किन्तु ये फील्ड पोजिशन कहाँ होते हैं, यह हमें टीवी की थकी हुई कॉमेन्ट्री से बहुत बाद में पता चला। पिताजी क्रिकेट के इतने बड़े मुरीद थे कि वह रेडियो पाकिस्तान का भी रवां-तफ्शरा सुना करते थे। रेडियो पाकिस्तान पर कॉमेन्टेटर्स का अंदाज जारिहाना हो जाता था जब पाकिस्तान की हालत अच्छी हो और जाहिलाना जब पाकिस्तान की हार के आसार दिखें। शिकस्त की सूरत बनते ही रेडियो पाकिस्तान क्रिकेट का रवां-तफ्शरा बंद करके हालात-ए-हाजरा पर तफ्शरा चालू कर देता था।
हमारे क्रिकेट शौक को पंख तब लगे जब हमें एक ढ़ंग का बैट, बॉल और मेड इन माई विलेज छह विकेट मिले किन्तु पैड-ग्लॉब्स अब भी हमारे पास नहीं थे। मैं कपिलदेव के जैसा तेज गेंदबाज बनना चाहता था। लंबाई ठीक-ठाक थी, ताकत औसत से कम। लिहाजा रफ्तार नहीं आयी और तेज गेंदबाजी के लिए दूर से दौड़कर आना मुझे पसन्द नहीं था। इसलिए मैं फिरकी गेंदबाज बन गया। भारत में फिरकी गेंदबाजों के बहुतायत में होने का सबसे बड़ा कारण आलसी होना ही है। टर्न रहित फिरकी गेन्दबाजी और अधिकतर मौकों पर रन रहित बल्लेबाजी के दम पर मैं स्वयं को ऑलराउंडर कहने लगा।
देखते देखते हमारे गांव की क्रिकेट टीम बन गयी। बेरोजगारी की डफली बजा रहे गाँव के एक बड़े भाई हमारे अघोषित और स्वयंभू कोच बन गये। मौका मिलते ही वह हमें गेंद की लाइन में जाकर सीधे बल्ले से खेलने की नसीहत देने लगते थे। जब स्वयं खेलते थे तो ‘आए आम चाहे जाए लबेदा’ टैप अँखमूद्दा बल्ला भाँजकर या तो आउट होते थे या चौका-छक्का मारते थे। शॉट गेंद को बैकफुट पर और फुल्ल गेंद को फ्रंटफुट पर खेलने की उनकी सीख हमलोग सुन भर लेते थे। शॉट, फुल्ल और गुड लेंथ गेंदों का पता तो हमें टीवी देखकर चला।
टीम बन गयी थी तो मैच खेलना जरुरी था। नदी पार के गाँव सरेयाँ की टीम ‘सरेयाँ सुल्तान’ से मैच फिक्स हुआ। हमारी टीम थी ‘सिपाह सिक्सर्स’। गंगा जमुनी तहजीब में दरार तब साफ दिखी जब वे जुम्मे को मैच चाहते थे और हम रविवार को। मैच रविवार के स्कूली अवकाश के दिन रखा गया। विवाद मैच के मैदान को लेकर भी हुआ। मुँहबजरा में हम भारी पड़े, इसलिए तय हुआ कि मैच हमारे मैदान पर खेला जाएगा।
मैच के दिन हमलोग खा पीकर और लंच का चना चबेना लेकर मैदान पर पहुँच गये। मेरी कप्तानी में हमारी टीम के अंतिम ग्यारह खिलाड़ियों का नाम एक कागज पर लिखकर विरोधी टीम को दिया गया। उन्होने भी ऐसा ही किया। टीम का कप्तान मैं किसी नेतृत्व कौशल के कारण नहीं था बल्कि इसलिए था कि हम भाईयों के पास दो दो बैट थे और मैं भाईयों में सबसे बड़ा था। दोनों टीम का बारहवाँ खिलाड़ी पदेन रुप से स्कोरर होता था। स्कोरर का काम बहुत चुनौतीपूर्ण था। मैनुअल गणना के लिए बहुत एकाग्रता की आवश्यकता थी। दोनों टीमों के स्कोरर के बीच कोई मिसमैच रपट-पलाचे को आमंत्रित कर सकता था। स्कोरर के लिए उससे भी अधिक महत्वपूर्ण था बाउंड्री के बाहर घूम रहे सांढ़ पर नजर रखना वरना वह मौका मिलते ही स्कोरर महोदय को अपने सींग के तराजू पर तौल देता। परिपाटी के अनुसार दोनों टीमों से एक-एक मुँहदुबर अंपायर बना दिये गये।
कप्तान के रुप में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मैं अंपायर्स और विरोधी कप्तान के साथ मैदान पर गया। दोनों कप्तानों ने एक एक अठन्नी अंपायर को दिया, अंपायर ने उनका एक सिक्का बनाकर हवा में उछाला। मैने हेड कहा और टॉस जीत गया। टॉस जीतकर परंपरानुसार मैंने पहले एक रुपये का सिक्का जेब में डाला और बैटिंग करने का फैसला कर लिया। टॉस जीतकर बैटिंग करने का फैसला पिच की स्थिति या डकवर्थ-लुईस फैक्टर से नहीं बल्कि इस कारण था कि शांति भंग होने की स्थिति में रद्द हुए मैच में यह अफसोस न रहे कि हमने फोकट में फील्डिंग की।
हमारे दोनों ओपेनर्स मैदान पर गये। पहली ही गेंद पर पहला बोल्ड होकर वापस आ गया। दूसरे विकेट की साझेदारी में 40 रन बने। दूसरे विकेट के पतन पर मैं मैदान पर स्वयं उतर गया। पिच पर जाकर मैने अपना हवाई चप्पल विकेट के पीछे खोला। विरोधी विकेटकीपर ने खेल भावना में दी गयी मेरी अनुमति से मेरी चप्पल को अपना दस्ताना बना लिया क्योंकि उसके दस्ताने का फीता टूट गया था। फिर मैने बैट से पिच थपथपाया और दो उँगली दिखाकर मिडल स्टंप का गार्ड लिया। मुझे पहली गेंद लेग स्टंप पर फुल टॉस मिली जिसे कोई भी औसत बल्लेबाज फाइन लेग बाउंड्री के पार भेज सकता था। मैने भी भेजा लेकिन मेरे स्ट्रोक में क्रिकेटिंग कॉनफिडेंस कम था और अपनी पसलियाँ बचाने की हड़बड़ी अधिक। जैसे तैसे करके आउट होने से पहले मैने 25 रन बना डाले जिसमे अंपार्यस का योगदान भी कम नहीं था।
मैच हमारे मैदान पर हो रहा था। इसलिए हमें पगबाधा, स्टंप और रन आउट करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था। अपने मैदान पर खेलने का एक और लाभ यह है कि शारीरिक भाषा मुखर होती है – जीतेंगे तो हुड़ेंगे, हारेंगे तो थूरेंगे। मेरे एक स्ट्रोक पर विवाद हुआ जिसे हम चौका मान रहे थे और विरोधी नहीं। हमने दौड़कर दो रन लिया था। लड़ाई के बीच विरोधी अंपायर आकर धीरे से बोला; “जाए दs मरदे, तीन रन ले लs।” हमारे एक जमे हुए खिलाड़ी के रन आउट पर जोरदार बवाल हुआ। स्कवायर लेग पर खड़े विरोधी टीम का अंपायर अपने अंगूठे और एक उंगली का गोला बनाकर अपनी भौं के पास ले गया। जैसे ही हमारा बल्लेबाज उसकी तरफ बढ़ा, अंपायर बोल पड़ा, “हम तो आँख हगुआ रहे थे जे है से।” मेरे बाद के बल्लेबाजों ने जोरदार बैटिंग की और हमारा अंतिम स्कोर निर्धारित 35 ओवर में 288/8 रहा।
चना-चबेना लंच के दौरान दोनों टीमों के बीच मारपीट होते होते बची। हमारे खिलाड़ी बड़े स्कोर के दंभ में विरोधियों को चिढ़ा रहे थे। बहरहाल, दूसरी पारी शुरु हुई। विरोधी टीम आरम्भ में लड़खड़ाई लेकिन फिर लक्ष्य का पीछा जोरदार तरीके से करने लगी। उनका स्कोर 250 के पार जा चुका था 28 ओवर में, छह विकेट हाथ में थे। मैने अपने सभी संभावित 11 गेंदबाजों को आजमा लिया था। हार दहलीज पर खड़ी साफ दिख रही थी।
हमारे टीम का डर्टी ट्रिक डिपार्टमेन्ट हरकत में आ गया और लड़ाई के बहाने ढ़ूँढ़ने लगा। लड़ाई हो भी गयी। हमारा स्कोरर उनके स्कोरर को पटककर हड्डी से कबड्डी खेलने लगा। उनके अंपायर ने हमारे अंपायर का फफेली पकड़ लिया। हमारे विकेटकीपर ने उनके विकेटकीपर का भुभुन फोड़ दिया। सभी अपना अपना काउंटरपार्ट खोजकर गुत्थमगुत्था हो गये। दोनों टीमों के गारी-गुत्ता विशेषज्ञ भी अपना कौशल दिखा रहे थे। विरोधी कप्तान मेरे हाथ में बैट देखकर दूर खड़ा था। मैंने भी फौजदारी के डर से खुद पर नियंत्रण रखा था। दोनों टीम के पास दो दो बैट थे। मैदान में फील्डिंग करते रहने के कारण सभी छह विकेट हमारे कब्जे में थे। सहायता के लिए हमारे गांव के और बच्चे भी आ चुके थे। लिहाजा हमारा पलड़ा भारी थी और हम मारपीट में जीतते दिख रहे थे।
इससे पहले कि मारपीट से मैच का कोई परिणाम निकलता, क्षेत्र के सबसे बड़े क्रिकेट मुरीद और जानकार मेरे पिताजी आते हुए दिख गये। खेल भावना की यह दुर्गति देखकर वह हमारी उससे भी कठिन दर्गति करते। इसलिए दोनों टीमों ने मैच को अनिर्णीत छोड़कर भाग लेना ही उचित समझा।
रेखाचित्र सौजन्य: सुरेश रंकावत (@SureAish)
दावात्याग – लेखक द्वारा यह संस्मरण मूल रूप से lopak.org के लिए लिखा गया था जो बाद में lopak.in पर भी प्रकाशित हुआ था।
क्रिकेट का खुमार तो नहीं है… लेकिन जितने रोचक ढंग से आप लिखे हैं… आनंद आ गया…
धन्यवाद श्रवण।
“जीतेंगे तो हुड़ेंगे, हारेंगे तो थूरेंगे” आपने गाँव वाले दिनों की याद दिला दी। वैसे सीवान में सरेयां वालों के खिलाफ बहुत मैच खेले हैं हमने।
बचपन के दिन याद दिलाने के लिए धन्यवाद पसे!
आपने गवई क्रिकेट के टीम विन्यास और खेल भावना का तथा खेल के परिणाम के पहले होने वाले रोमान्च का मानो आखो देखा हाल तो आप सुशील दोशी जी से भी बेहतरीन प्रस्तुतीकरण की है आप अपने संस्मरण में क्रिकेट के खेल के रोमांच का बाल बाई बाल और अंपायर के विकारपुर्ण निर्णयों के बाद डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट के सदस्यों के सहयोग से टीमों के गुत्थम गुत्थी का चित्रण और तात्कालिक फौजदारी कानून के प्रति लेखक कम कप्तान का सम्मान और उसके बाद क्रिकेट प्रेमी पिता जी के द्वारा डर रूपी जबरजस्त पुरस्कार वितरण समारोह से लेखक भय अप्रतिम है
मुझ जैसे पाठक को हास्य रस और बीर रस से सराबोर करने के बाद सिर्फ रौद्र रस से ही आपने वंचित किया और मुझ जैसे पाठक को अपने मैदान पर खेलने का एक अलग अनुभव से गुजारा है
अंत में आपके संस्मरण ने हमें अपने गांव में मित्रो के साथ खेले गए सुखद अनुभव में डूबा गया आपको हिलैरीयस संस्मरण के लिए बधाई और साधुवाद…..
धन्यवाद दीपक।
लेख से सुन्दर समीक्षा और मेरी प्रशंसा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
Ati uttam
धन्यवाद मनीष।
धन्यवाद मनीष
सधी हुई भाषा में अंत तक रोचकता बनाये रखी, साथ ही बालपम और देहात की परिस्थितियों का सम्मिश्रण नजर गस्या।
साधुवाद!😊