बिहार चुनावों की पड़ताल-1-गठबंधन
गठबंधनों की स्थिति, मुद्दे और संभावनाएँ
चुनाव आयोग द्वारा बिहार विधानसभा चुनावों की अधिसूचना जारी कर दिए जाने के बाद चुनावी बुखार चढ़ने लगा है। नयी नयी राजनीतिक संधियाँ हो रही हैं, पुरानी संधियों का संधि-विच्छेद हो रहा है और कुछ पुरानी संधियों को जारी रखने की शर्तों पर वार्ता चल रही है। एक-दो दिन में बिहार चुनावों के गठबंधनों की स्थिति पूरी तरह साफ हो जाएगी।
यह कहने के लिए किसी को राजनीतिक विशेषज्ञ होने की आवश्यकता नहीं है कि बिहार में मुख्य मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच होगा। अन्य मोर्चे या गठबंधन या दल लगभग सह-कलाकार की भूमिका में ही होंगे। कुशवाह का रालोसपा-बसपा गठबंधन और पप्पू यादव का जन अधिकार पार्टी-आजाद समाज पार्टी और अन्य संभावित गठबंधन अपनी भूमिका को दमदार बनाने की कोशिश करेंगे। सीमांचल की लड़ाई को तड़का देने के लिए ओवैशी साहब भी आएँगे ही। अतिथि कलाकार के रूप में इस चुनाव में पुष्पम प्रिया के नेतृत्व में प्ल्यूरल्स तीस साल के लॉकडाउन को तोड़ने का वादा करते हुए तमाम क्षेत्रों में वैसे साफ-सुथरे पेशेवर लोगों को उतारने की घोषणा कर रही है जो क्षेत्र में लगभग अनजान हैं। कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि निर्दल मोर्चा इन सह-कालाकरों और अतिथि कलाकार को सीटों की संख्या में पछाड़ दें।
सबसे पहले गठबंधन का स्वरूप साफ करने के लिए महागठबंधन को पूरे अंक मिलेंगे। हाँलाकि ‘सन ऑफ मल्लाह’ के नाम से मशहूर विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी महागठबंधन की प्रेस काँफ्रेंस से कल नाराज होकर चले गये थे। उनके अगले कदम की घोषणा अभी शेष है। उपेन्द्र कुशवाहा और पप्पू यादव दोनों उन्हें लपकना चाहते हैं क्योंकि सहनी मल्लाहों का नेता होने का दावा करते हैं। एनडीए में उनकी जगह फिलहाल नहीं दिखती लेकिन राजनीति अनिश्चितताओं का खेल है। क्या पता लोजपा के चिराग पासवान की जिद उनके लिए रास्ता बना दे।
महागठबंधन में हुए समझौते के अनुसार राजद 144 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, काँग्रेस 70 सीटों पर, सीपीआई माले 19 सीटों पर, सीपीआई 6 सीटों पर और सीपीएंम 4 सीटों पर। इन आँकड़ों से प्रथम द्रष्टया यही लगता है कि काँग्रेस को समझौते में उतनी ही सीटें अधिक मिली हैं जितनी राजद को कम लेकिन राजद अपने पतले दिनों के इतना त्याग करने को खुशी से तैयार हो गया। 1990 से बिहार में काँग्रेस का पराभव आरम्भ हुआ। मंडल के बाद लालू यादव बड़े नेता के रुप में उभरे। काँग्रेस उन्हें चुनौती दे नहीं सकी तो काँग्रेस लालू राज को ही पुष्पित और पल्वित करने में साझीदार बन गयी। परिणाम सामने है। आज भी वह राजद की पिछलग्गू ही बनी हुई है।
लालू यादव के नेतृत्व में आए पिछड़ा उबाल ने सबसे पहले वामपंथी दलों का जनाधार ही उदरस्थ किया। तमाम पिछड़े वामपंथी राजद में चले गये। 1995 के विधान सभा चुनाव परिणामों पर बिहार के एक प्रमुख दैनिक में हेडलाइन थी – माकपा साफ भाकपा हाफ। वही भाकपा और माकपा आज राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन का हिस्सा बने हैं। गरज दोनों तरफ है।
उधर जनसंहारों के बीच भाकपा माले लालू राज में भी लगातार अपना जनाधार बढ़ाता रहा। सिवान की दो सीटों पर उसके विधायक भी बने और आज कई सीटों पर उसका प्रभाव है। आरा और गया सहित कई क्षेत्रों में उसका असर है लेकिन गठबंधन में यह कितना प्रभावी होगा, यह कहना कठिन है क्योंकि तमाम जगहों पर माले-राजद परम्परागत रूप से आमने-सामने होते हैं। एक-दूसरे को वोट स्थानान्तरित करवाना बड़ी चुनौती होगी। भाकपा-माकपा से तालमेल संभवत: वाम एकता की धारणा बनाने के लिए ही किया गया है वरना बेगूसराय और एक दो छोटे मोटे पॉकेट की बात छोड़ दें तो ये दल कागजों पर ही हैं। वैसे भी इन वाम दलों के वोट बैंक में बहुत माइक्रो लेवल विभाजन पिछले तीन दशकों में हुआ है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि महागठबंधन में तमाम अनुभवी नेताओं के होते हुए यह तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगा और वह मुख्यमंत्री प्रत्याशी होंगे। एनडीए के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के सामने वह बहुत हल्के दिखेंगे – अनुभव में भी, राजनीतिक चातुर्य में भी, उपलब्धियों में भी और गठबंधन की लोकप्रियता में भी। साथ ही यह भी सच है कि एनडीए के विरूद्ध महागठबंधन का नेतृत्व राजद ही करेगा और राजद का नेतृत्व लालू परिवार।
एनडीए का स्वरूप अभी साफ नहीं हुआ है। लोजपा के चिराग पासवान लगातार 143 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं। वह जदयू और हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा के विरूद्ध अपना उम्मीदवार उतारने की बात कर रहे हैं। अंदरखाने बातचीत भी चल रही है। 42 सीटों से वह 36 सीटों की माँग पर आ गये हैं। लोजपा की यह जिद एनडीए पर चाहे जो असर डाले पर चिराग पासवान को यह अवश्य ही याद होगा कि कुछ इसी तरह की जिद 2004 में उनके पिताजी ने किया था जब बिहार विधानसभा में लोजपा के 30 उम्मीदवार जीतकर आए थे। सत्ता की चाभी लेकर वह दिल्ली भाग गये। काँग्रेस ने राष्ट्रपति शासन लगा दिया। उसके बाद लोजपा का स्वतंत्र अस्तित्व लगभग समाप्त ही हो गया।
मीडिया में आ रही खबरों के अनुसार भाजपा और जदयू में क्रमश: 121 और 122 सीटों पर लड़ने की सहमति बन गयी है। फॉर्मूले में यह साफ दिख रहा है कि भाजपा 2015 चुनाव परिणामों के झटके से उबरी नहीं और वह नीतिश कुमार को खोना नहीं चाहती। यह समझा रहा है कि भाजपा अपनी सीटों में लोजपा को एकोमोडेट करेगी और जदयू अपने कोटे से जीतनराम माँझी के हिन्दुस्तान अवामी मोर्चा को। यह देखना दिलचस्प होगा कि लोजपा एनडीए में बनी रहती है या नये सहयोगी बनाती है या अकेले चुनाव लड़ती है।
बिहार चुनाव के मुद्दों पर राष्ट्रीय मीडिया तक में खूब बातें हुई हैं। कभी सुशान्त सिंह राजपूत को मुद्दा बताया गया, कभी रघुवंश बाबू और कभी राज्यसभा में हुई अभद्रता के लिए बिहारी अस्मिता के नाम पर हरिवंश जी को। कुछ लोग इस साल आए भयंकर बाढ़ को भी मुद्दा मानते हैं, कुछ लोग कोरोना और कोरोना जनित पलायन को। सुशान्त का मामला कभी ऐसा मुद्दा था ही नहीं जिस पर चुनाव हों। फिल्मी सितारों के प्रति इतनी आसक्ति बिहार में नहीं है। अब तो मामला ठंडा भी पड़ गया है। रघुवंश बाबू और हरिवंश जी की बात एक-दो दिन में आयी-गयी हो गयी। बाढ़ कभी बिहार का चुनावी मुद्दा होता तो बिहार बाढ़ से कब का मुक्त हो गया होता। कोरोना सिर्फ बिहार का नहीं बल्कि पूरे देश का मुद्दा है और बिहार कोरोना पर सबसे अच्छी स्थिति वाले राज्यों में है।
सच पूछिए तो बिहार में कोई चुनावी मुद्दा ही नहीं है या कम से कम अभी मुद्दा साफ नहीं हुआ। मुकाबला एनडीए-मगब के बीच है जिसके केन्द्र में व्यक्ति का विरोध या समर्थन ही होगा। वह व्यक्ति लालू भी हैं, नीतिश भी और नरेन्द्र मोदी भी। चुनाव अभियान में विकास के मुद्दे का छौंक भी लगता रहेगा। जाति हर बार की तरह इस बार भी एक फैक्टर होगी। जाति, दल और गठबंधन का कॉकटेल मतदाताओं के निर्णय का आधार होगा। इसलिए चुनावों की स्थिति पर थोड़ी स्पष्टता तब आएगी जब गठबंधनों की क्षेत्रवार स्थिति साफ होगी और उम्मीदवारों के नाम घोषित होंगे।
हालाँकि यह जल्दबाजी होगी पर चुनावी आंकलन में संभावनाओं पर भी थोड़ी चर्चा होनी ही चाहिए। यह साफ है कि राजद अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, काँग्रेस अपने को जिन्दा दिखाने की कोशिश कर रही है। वाम दल स्वयं को प्रासंगिक करने की जुगत में हैं और शेष अपने भविष्य की संभावनाओं के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। नि:संदेह एनडीए अंकगणित में मजबूत दिख रहा है लेकिन यह कहना ही होगा कि नीतिश कुमार की लोकप्रियता खासी कम हुई है। यह स्वाभाविक है कि एनडीए इस कमी को नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता से पूरा करने की कोशिश करेगा। एनडीए में लीड पार्टनर जदयू के होने और नेता नीतिश कुमार के होने के कारण भाजपा को यह लग्जरी है कि एंटी-इनकमबेन्सी उस पर उतना नहीं होगा जितना जदयू पर होगा।
सरकार के प्रदर्शन की बात करें तो लगता है कि वह जड़ हो चुकी है। देश से बेहाथ हो चुके बिहार को पटरी पर लाने का श्रेय नीतिश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को ही है लेकिन धीरे-धीरे ये ढीले पड़ गये। एक जगह से आगे बढ़ने के नाम पर शराबबंदी और मानव शृंखला ही दिखती है। बिजली-पानी-सड़क ठीक है पर आगे क्या? आगे कुछ करना तो दूर उस पर बात भी नहीं होती और न कोई विजन दिखता है। डबल इंजन सरकार इस कर्यकाल में सिंगल इंजन का लोड भी नहीं ले सकी। इसके बावजूद एनडीए के पास सबसे प्रभावी अस्त्र है – 15 साल का जंगलराज।
अंकगणित के अतिरिक्त एनडीए गठबंधन के पक्ष में एक बात और है कि लंबे समय से सहयोगी होने के कारण इसके दलों में इतना सिंक है कि वे अपने वोट एक दूसरे को स्थानान्तरित करवा सकते हैं। किसी भी द्विध्रुवीय मुकाबले में दूसरे पक्ष की कोई संभावना ही ना हो, ऐसी नहीं हो सकता। महागठबंधन के पक्ष में सिर्फ एक ही बात कही जा सकती है कि कहीं नीतिश कुमार इतने अलोकप्रिय तो नहीं हो गये कि लोग 15 साल का तथाकथित जंगलराज भूल जाएँगे और एनडीए का मजबूत अंकगणित फेल हो जाएगा।