उजड़े दरबार के बेराग दरबारी

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रानी की कोख से राजा के पैदा होने का क्रम लोकतंत्र में रुक जाने की अपेक्षा थी लेकिन राजनीतिक एकाधिकार के बीच निहित स्वार्थ में लोकतांत्रिक उत्तराधिकार ऐसा गढ़ा गया कि राजा की बेटी रानी बनी, रानी का एक बेटा निरंकुश राजकुमार बना और दूसरा बेटा राजा। फिर उस राजा की पत्नी रानी बनते बनते रह गयीं और उन्होंने सेवक को मुँहबोला राजा बना डाला। रानी बेटे को राजा बनाने के उपक्रम में हार चुकी दिखती हैं। शायद अब वह बेटी को रानी बनाने की जुगत भिड़ाएं। लेकिन क्या पता, परिपक्व होता लोकतंत्र इस क्रम पर स्थायी रोक ही लगा दे। आशा पर आकाश टिका है।

उधर मतपेटी या ईवीएम से भी गुदरी के लाल निकले। यह बात अलग है कि उन लालों में से अधिकांश राजधानी पहुँचकर लोकतंत्र की स्पिरिट के विपरीत पीले हो गए। लोकतंत्र में भी दरबार बना, दरबारी आए। किसी ने पत्रकार का भेष धरा, कोई बौद्धिकता का पहरुआ बना, किसी ने साहित्यिक चोला ओढ़ लिया, कोई इतिहासकार, शिक्षाविद या समाजशास्त्री बन गया। कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने पत्रकार, बुद्धिजीवी और साहित्यकार आदि ही बने रहने का फैसला किया। सेट होने के लिए खुशामद के काम और माँ-बाप के नाम का भी सहारा लिया गया।

जो दरबार में सेट हो गया, उसने समझ लिया कि यह दरबार और उसका रुतबा स्थायी है। कुछ दशकों तक हम उन्हीं की आँख से राजनीति, समाज, इतिहास और साहित्य देखते रहे। वे सुविधानुसार राई को पर्वत और पर्वत को राई करते रहे। धीरे धीरे लोकतंत्र पर थोपा गया उत्तराधिकार कमजोर पड़ने लगा। सोशल मीडिया भी आ गया। इसने दरबार की चूलें हिलानी शुरू कर दीं। दरबारी साहित्यकार, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का आम लोगों से आमना सामना हुआ। लोगों ने प्रश्न पूछने शुरू किए। यह अप्रत्याशित था।

कुछ के नकाब उतर गये। कुछ चालू निकले और उन्होंने नया नकाब चढ़ा लिया। साहित्यकार, बुद्धिजीवी, इतिहासकार और पत्रकार साफ-साफ लाल, हरे और भगवा दिखने लगे। कुछ सतरंगी भी दिखे, कुछ ग्रे बने रहे। कुछ उतरे नकाब के बावजूद आशावाद के हिचकोले खाते रहे कि पुराने ‘अच्छे दिन’ फिर आएँगे। उसी आस में बौद्धिकता, साहित्य और पत्रकारिता की डेडली कॉकटेल बनी हस्तियाँ सोशल मीडिया पर जमी हुई हैं। डिक्टेट करने की आदत है, विमर्श कैसे करें? आए दिन मुँहबजरा होता रहता है, कभी कभी लसराकुट्टन भी।

बाबूजी हाथी की सवारी करते थे। साइकिल सवार बेटा साइकिल की घंटी की जगह बाबूजी के हाथी की जंजीर बजाते हुए यह अपेक्षा रखता है कि बाबूजी के रौब से पूरा ट्रैफिक खाली हो जाए। सोशल मीडिया पर सांकेतिक साइकिल और जंजीर असर नहीं छोड़ पा रहे। लोग प्रश्न पूछते हैं, भले कोपभाजन बनना पड़े। लोग उनकी तथाकथित साहित्यिक कृति पर आलोचनात्मक टिप्पणी कर दें तो उन्हें लुगदी साहित्य में उलझे रहने का ताना दे दिया जाता है। कथित लुगदी साहित्य का पाठक लुगदी साहित्य को उनके लबादा साहित्य से बेहतर बताते हुए कहता है कि इस साहित्य के न लेखक लबड्डू हैं और न पाठक लबरधोंध। साहित्यकार का आहत होना स्वाभाविक है। टू-वे सोशल मीडिया जो न कराए।

उनका आहत मन सहसा भाषा पर चिन्तित होते हुए चन्द्रबिन्दु पर प्रवचन देने लगता है। बड़ी ‘ई’ और छोटी ‘इ’ (सिर्फ ई और इ नहीं) पर दिए गए ज्ञान से मेरी एक दुविधा का हल बात बात में हो गया। ऐसे ही भाषाविदों ने बिहार में हमें वह हिन्दी पढ़ायी जिसमें बिना स्वर का भेद किए श, ष और स क्रमश: तालब्बे (तालव्य) स, मूरधने (मूर्धन्य) स और दंते (दंत) सिखाए गए। देश का रसातल में जाना जुमला है। भाषा तो रसातल में चली ही गयी, हिन्दी के हिंग्लिश बनने में। अंग्रेजी की क्रिया सिंक हिन्दी के काल सूचक गा के साथ सिंकेगा हो गयी, डूबेगा शब्द ही डूब गया। भाषा का ध्वजवाहन डॉक्टराइन और डॉक्टरनी के बीच का भेद ही समझता रहा। जब जिम्मेदारी की बात उठी तो अंग्रेजों को कोस दिया गया, गोया ये तो सिर्फ भाषा की मलाई खाने को अवतरित हुए थे।

कभी राजनीति की गिरती गरिमा याद आती है और सावर्जनिक विमर्श निम्न स्तरीय लगता है तो अंदर बैठा बुद्धिजीवी सक्रिय हो जाता है। सीख ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ जैसी होती है क्योंकि सीख देने वाला ही किसी उच्च पदस्थ को उसके जन्मदिन की शुभकामना उसे वैशाखनन्दन कहकर देता है और किसी की व्याधि पर चुटकी लेता है। दाल यहाँ भी नहीं गली तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता का शरणागत होना पड़ता है। दूसरों के मुँह पर पट्टी रखकर अपने लिए अभिव्यक्ति की वैसी स्वतंत्रता माँगी जाती है कि उसे दरबार प्रदत्त हनक के रुप में स्वीकार किया जाए। स्वयं बात बात में पजामे से बाहर होकर दूसरों को सहिष्णुता का पाठ तो पढ़ाया जाता है लेकिन अफसोस कि न वह दरबारी हनक शेष है और न ही मीडिया के वन-वे होने की लग्जरी। टू-वे सोशल मीडिया मुँहतोड़ जबाब देता है, कई बार सीमाएँ लाँघकर भी।

मन में काँव काँव मची है कि भाषा किसकी है – सबकी या भाषा के सच्चे कर्णधारों की या विरासत अथवा दरबार से निकले फोकटिया ध्वजवाहकों की या बोलने और पढ़ने वालों की या भाषा से अपना पेट पोसने वालों की या भाषा के लिए अपना समय और अपनी गाढ़ी कमाई के चार पैसे खर्च करने वालों की? पुराने दरबारी दिन फिर आएँगे? नया बन चुका दरबार भी क्या उसी रास्ते चल रहा है या दरबार संस्कृति खत्म होगी?

ऐसी काँव-काँव का साफ-साफ उत्तर फिलहाल नहीं है।

लेखक गद्य विधा में हास्य-व्यंग्य, कथा साहित्य, संस्मरण और समीक्षा आदि लिखते हैं। वह यदा कदा राजनीतिक लेख भी लिखते हैं। अपनी कविताओं को वह स्वयं कविता बताने से परहेज करते हैं और उन्हे तुकबंदी कहते हैं। उनकी रचनाएं उनके अवलोकन और अनुभव पर आधारित होते हैं। उनकी रचनाओं में तत्सम शब्दों के साथ आंचलिक शब्दावली का भी पुट होता है। लेखक ‘लोपक.इन’ के लिए नियमित रुप से लिखते रहे हैं। उनकी एक समीक्षा ‘स्वराज’ में प्रकाशित हुई थी। साथ ही वह दैनिक जागरण inext के स्तंभकार भी हैं। वह मंडली.इन के संपादक है। वह एक आइटी कंपनी में कार्यरत हैं।

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