बरसात की कुछ बातें
ये बरसात भी कमबख़्त किसी याद सी होती है। न आए तो बिल्कुल भी न आए और जो आए तो यहीं खूँटा गाड़ कर बैठ जाए।
बचपन में सुना करते थे कि जेठ, आषाढ़, सावन और भादों के चार महीने बरसात का मौसम होता है। इसीलिए हम इसे चौमासा भी कहते थे और चौमासे के लिए पूरी तरह तैयार रहते थे। अचार, बड़ी, मंगोड़ी,पापड़ दाल, बेसन के डब्बे पूरे भर कर अच्छी तरह बंद किए जाते थे क्योंकि जाने कितने दिन बरसात बरसे और बाजार न जा सकें। गुड़, चीनी, शहद पर तो बाकायदा दोहरे पहरे बैठाए जाते थे कि कहीं चींटियों और मकोड़ों की नज़र न पड़ जाए। खूब तला तली होती थी। पूरा घर बेसन और गुड़ के चीलों और पकोड़ों की खुशबू से महकता रहता था।
रिमझिम बूँदों के साथ गृहिणियाँ सारा दिन चाय पकौड़ी की फरमाईश पूरी करती रहतीं। घर के हर बच्चे के पास अपनी बरसाती होती ताकि पढ़ाई में बाधा न पड़े। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि भीगते-भागते शाला पहुँचे तो पता चला बरसात की वजह से छुट्टी हो गई। फिर घर कौन जाता? वहीं मैदान में छपाक छई करते रहते और शाम को मिट्टी से रंगे-पुते घर पहुँचते। डाँट तो पड़ती पर गरम अदरक वाली चाय भी पीने को मिलती।
गाय भैंसें भी अपने बाड़े में बैठे मक्खियों से जुगलबंदी करते रहते। चारा भींग जाए तो उनकी तो मौज हो जाती क्योंकि फिर कोठरी से निकाल कर बारीक बाटा खिलाया जाता या गरम गरम रोटियाँ परोसी जातीं।
मगर वो तब की बात थी। अब तो बरसात भी आधुनिक हो गई है। न पंचांग देखती है ना कैलेंडर। जब मन किया आ धमकती है। जितनी जल्दी आती है, उतनी ही जल्दी चली भी जाती है। जब तक छाता बरसाती निकालो, गायब। पहले बरसात में धूप चमकती तो कहते थे कि भूत प्रेतों का ब्याह हो रहा है। आजकल तो लगता है कि बादलों और बरसात ने सूरज से समझौता कर लिया है कि भाई तू भी चमक ले और हम भी बरस लें। बेचारे भूत प्रेतों को भी नये जमाने की हवा लग गई है। शादी करते ही नहीं, लिविंग इन में ही रहते रहते हैं।
किसान, सुथार, लूहार सब जानते थे कि कितने दिन काम बंद रहेगा किंतु अब तो ये महारानी अप्रत्याशित सी हो गई है। ये किसी के साधे नहीं सधती। इन्हें भी सरप्राइज देने का चस्का लग गया है।
निर्दयी हो गई है बरखा अब..! बरखा का मतलब सिर्फ बरखा, यह मत समझ लीजिएगा कि सरनेम टंकण की गलती से छूट गया है।
“इन्दर राजा मेघ दे,मेघ दे पानी दे गुड़ धानी दे..” की गुहार भी सुनाई नहीं देती इन्हें अब। न ही इन्हें मेंढकों के ब्याह से कोई फर्क पड़ता है। टिटहरी के अंडे हो जाएँ, उसमें से बच्चे निकल आएँ मगर मजाल कि ये टस से मस हो जाए। खाली खेतों में दाल बाटी चूरमे की गोठ भी पिघला नहीं पाती इन्हें तब।
और कभी जब बरसती है तो सयानी बहु की तरह एक बार ससुराल में ही ठहर जाती है। ऐसी झड़ी लगती है कि कुछ पुछो मत। छोटे बच्चों की माँएँ इस्तरी कर कर के पोतड़े सॉरी नेपी सुखाती हैं। डाक्टरेट मॉम्स आजू-बाजू के खाली प्लाट में डायपरों की बुआई कर देती हैं।
सोशल मीडिया से भी इसकी अच्छी साँठगाँठ है। बरसती है सिर्फ इतनी देर कि लोग चाय पकौड़ों की फोटो खींच कर अपलोड कर दें। बस हम तो गए काम से, थोड़ा फ्री टाइम हो तो वो पूड़ी कचौड़ी पर बलिदान हो जाता है।
आजकल की बरसात चूजी भी बड़ी हो गई है। छोटे छोटे हिस्सों में बरसती है। कभी कभी तो बस डेढ़ दो हजार गज में। मानसरोवर से निकलें तो ओलों की बरसात से भींगा हुआ आदमी वैशाली नगर पहुँचे तो लोग पूछते हैं कि ऐसी भी क्या जल्दी थी, कपड़े पहन कर ही नहा लिए और बिना पोंछे बाजार भी चले आए? अब आप दिखाते रहिए ओलों के फोटो पर वे नहीं मानेंगे।
फिर इन फिल्म टीवी वालों को कौन समझाए कि बरसात केवल रूमानी नहीं होती। बरसात केवल प्रेमी जोड़ों के लिए नहीं होती? “आज रपट जाएं..” की तर्ज़ पर जब पड़ोसी युगल सामने वाली छत पर छई छप्पा करने लगे तो बालकनी में बच्चों और बड़ों के साथ बैठना दूभर हो जाता है। मुए गीतकारों को पता ही नहीं कि ज्यादा देर बरसात में भीगने से जोड़ जोड़ दुखने लगता है।
खैर आषाढ़ चल रहा है और सावन आने को है। ईश्वर से प्रार्थना है कि थोड़ी कृपा रखें और कोरोना माई के मारे इस संसार के दुख और न बढ़ाएं और हम गा सकें …
सावणों सुरंगो सरसावणो, भादवो सुरंगो मनभावणो …
लेखिका – अक्षिणी भटनागर (@Akshinii)
बहुत सुंदर लिखा मैम 👏👏
बहुत ही सुंदर भाव के साथ पुराने यादों को संजोया है।
आपके और भी लेख का इंतजार रहेगा।
बहुत बेहतरीन मैम। सुंदर चित्रण किया है बरसात का। ऐसा लगा जैसे सचमुच बारिश के बीच ही यह पढ़ रह हूं। एक सार्थक आलेख की यहीं खूबी भी होती है। बधाइयां। 💐💐
मै उत्तराखंड से हूं। और हमारे यहां बरसात के बीच धूप आने पर स्यार ( लोमड़ी) की शादी का होना माना जाता है।😁
अति सुंदर 👌🏻👌🏻
V beautifully captured and expressed keep it up akshani
बहुत खूब । ऐसा लगा कि हम दूसरी ही दुनिया में पहुँच गए । 👍👌