असली लड़ाई खाने की है

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पृथ्वी पर मनुष्य की उत्पत्ति पर प्रकृति को लगा होगा कि वाह क्या चीज है। हो सकता है कुछ ऐसा भी सोचा हो -“ओ रे दद्दा जो का बन गओ”। प्रकृति के मनोभाव को किसने जाना है। लेकिन आदमी का पहला मनोभाव निश्चित ही भूख रहा होगा। आदमी ने पहले फल खाए होंगे या मांस, सामान्य व्यवहार मानते हुए देवताओं ने मनुष्य को खाने दिया। धीरे धीरे मनुष्य ने सब कुछ खाना अपना अधिकार समझ लिया। कभी कभी ऐसा लगता है कि अपने खाने की आदतों के कारण ही मनुष्यों में भेद उत्पन्न हो गया है। जात-पात सब मिथ्या है, भोजन ही सबसे बड़ी जात है।

या तो लोग मांस खाते हैं या नहीं खाते। जो मांस नहीं खाते वे पेड़ पौधों को या उनके फलों/ सब्जियों को खाते हैं।  तोड़ कर खाते हैं या खोदकर खाते हैं। कच्चा खाते हैं या पका कर खाते हैं। मांस न खाने वाला शाकाहारी कहलाता है। लेकिन सारे शाकाहारी एक जात हों, ऐसा नहीं है। जैसे प्याज-लहसुन न खाने वाला वैष्णव हो जाते हैं। लेकिन प्याज-लहसुन के साथ आलू भी न खाने वाले जैन हो जाते हैं। इसी तरह लौकी-तुरई-टिंडा-करेला आदि न खाने वालों की अलग अलग उपजातियों को किसी शिड्यूल में डाला जा सकता है।

कुछ शाकाहारी उस जगह नही खाते जहाँ एक ही रसोई में मांसाहारी भोजन भी पकाया गया हो। कुछ शाकाहारियों को इससे परहेज नहीं होता। वे दफ्तर के बाहर लगे ठेले पर एक ही तवे पर एक ओर पकते एग-रोल या चिकन रोल को अदृश्य मानकर दूसरी ओर पका हुआ मिक्स पराठा प्रेम से खा लेते हैं। कुछ शाकाहारी, शाकाहारी नहीं होकर भी शाकाहारी होते हैं। वे अंडे खाते है, अंग्रेजी में तो एगीटेरियन की उपाधि धारण कर लेते हैं। हिंदी में इनके लिए क्या शब्द है, यह शोध का विषय हो सकता है, अण्डाहारी इतना जँचता नहीं है। कुछ ऐसे हैं जो केवल ग्रेवी खाते हैं और पीस अलग कर देते हैं। इनको ग्रेवीटेरियन कहा जा सकता है। ये दो खाने के मामले में अलग तरह के लोग हैं जो अनिर्णय की स्थिति में फँसे रहते हैं। एक जाति होती है छुपकर मांस खाने वालों की, जो खाते हैं लेकिन सबके सामने नहीं खाते। पड़ोसियों से कहते तो हैं कि हम नहीं खाते लेकिन इनकी रसोई से आने वाली महक पड़ोसियों को बताती है कि इन्होने कुछ तो खाया है।

फिर बारी आती है मांसाहारी लोगों की। ऐसा भी नहीं कि इनमे उपजातियाँ नहीं होतीं। सबसे कट्टर जातियां तो यहीं होती हैं। मसलन कुछ लोग हैं जो काटकर मारते हैं और फिर खा जाते हैं, कुछ लोग मारकर काटते हैं, फिर खा जाते हैं। कुछ लोग तडपा कर मारते हैं। कुछ लोग मारकर तड़पाते हैं। चीन में कहीं कहीं ज़िंदा जानवर को खाने का भी चलन है। अधमरे पशु-पक्षियों और मछलियों और कीट पतंगों तक को नोच कर खाने वालों की एक अलग ही मानसिकता होती है। कुछ लोग काट नहीं सकते लेकिन पका सकते हैं और खा सकते हैं। कुछ लोग पका नहीं सकते लेकिन खा सकते हैं। कुछ लोग केवल ग्रेवी बना सकते हैं, लेकिन मांस देख भी नहीं सकते, काटना तो दूर की बात है।

काटने के तरीके पर भी आदमी की आदमी से भयंकर लड़ाई है। किस पशु को कैसे काटा गया उससे क्या फर्क पड़ता है, अंततः है तो एक शव ही। किस जानवर को खाना है लड़ाई तो उस पर भी है। लड़ाई क्या है, असली संघर्ष ही वही है। कुछ लोग सब खा सकते हैं। कुछ लोग सब खा सकते हैं, बस वराह नहीं खा सकते। कुछ लोग वराह खा सकते हैं लेकिन कोई और चौपाया नहीं खा सकते। कुछ सिर्फ मछली खाते हैं, पैरों वाले जीवों को छोड़ देते हैं। कुछ लोग पैरों वाले जीवों को छोड़ देते हैं और परों वाले जीवों के लिए काल बन जाते हैं। कुछ लोग सब खा सकते हैं लेकिन जलचरों की बू नहीं सह सकते।

कुछ लोग खाने में अंतर नहीं समझते, कुछ भी खा सकते हैं। चीनी-जापानियों को देखकर तो लगता है कि ये क्या नहीं खा सकते। टिड्डे से लेकर केंचुए तक इनका भोजन हैं। चमगादड़ से लेकर जीवित चूहे के बच्चे तक इनके प्रकोप से नहीं बचते। एक सज्जन को टीवी में नदी के तल से पत्थर निकालकर उसकी सब्जी बनाते हुए देखा – पत्थर फ्राई। यह सबसे अनोखा भोजन है। सज्जन का कहना था कि उसे पत्थरों को चूसते हुए मछली का स्वाद आता है।

चीनियों के कुत्ते खाने वाली ख़बरों से पाकिस्तान में तो जैसे ख़ुशी की लहर दौड़ गई। एक मौलाना ने तो आवारा कुत्तों को एक्सपोर्ट करके अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की सलाह दे डाली। उन्होंने धार्मिक प्रधानमंत्री से आह्वान कर डाला कि वह जल्दी कदम उठाए जाएँ। उनके प्रधानमंत्री ने क्या किया वो जाने। खाने से याद आया कि पाकिस्तान में आजकल असली लड़ाई खाने को लेकर ही है। लोगों को रोटी और नान नहीं मिल रही है। एक समय टमाटार के लाले पड़े थे। ऐसा नहीं कि पाकिस्तान में ही ऐसा होता है , भारत में भी कभी कभी टमाटर और सेब एक ही भाव बिक जाते हैं। प्याज़ ऊपर जाती है और सरकारें तक गिरा देती है। खाने को जब ठीक से न मिले तो आदमी का दिमाग ठीक से काम नहीं करता और भूखे को खाने को मिले तो वह किसी के साथ कुछ भी खा सकता है। वहाँ जात-धर्म-विचारधारा सब एक तरफ हो जाती है। जैसे खाने को मिला तो महाराष्ट्र में एक दूसरे को खाने वाले एक ही थाली में खाने लगे। राजनीति में भी असली लड़ाई खाने की ही है।

थाली से याद आया कि कुछ समाजों में एक ही बर्तन में खाना भी एक परंपरा है। एक ही थाली में पोहा नहीं खाना चाहिए। इससे हो सकता है कि आपको बंगलादेशी समझ लिया जाए। बुद्दिजीवी पोहा से लेकर बिरयानी और नान से लेकर रान तक खाने पर गोष्ठी कर लेते हैं। लम्बी लम्बी बहसें होती हैं जिनका ओर छोर कुछ नहीं होता। लेकिन एक शीत युद्ध और है जो मांसाहारियों और शाकाहारियों के बीच चल रहा है। शाकाहारी और मांसाहारी एक दूसरे को प्रायः आँखें तरेर कर देखते हैं। अगर एक शाकाहारी और एक मांसाहारी एक साथ भोजन करने बैठे तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि मांसाहारी मांस का टुकड़ा उठाकर जोर से हँसते हुए ये न कहे – “ले खा कर तो देख।” या  “चल ग्रेवी ही चख ले।” ऐसा भारतीय ही नहीं अंग्रेज मित्र भी कहते देखे गए हैं। लेकिन इसकी पराकाष्ठा तो तब होती है जब मांसाहारी यह कह दे कि तुम्हारा खाना, खाना है ही नहीं, शाकाहारी होना एक बुराई, अपराध या विकृति है। पके हुए भात को बिरयानी का नाम देने से उसमें से उस पशु की आह और उसके साथ हुई क्रूरता कम नहीं हो जाती। हाथ में मांस लेकर शाकाहारी के सामने अट्टहास करना किस प्रकार का आनंद दे सकता है, ये वही जाने।

असल युद्ध भोजन का ही है। हालाँकि शाहीन बाग में एक नया भोजन आया है – कुदरती खाना लेकिन  एक दिन कुछ नहीं बचेगा खाने को क्योंकि जो कुछ खाने लायक होगा, उसे मनुष्य सब खा जायेगा। बचेगा तो केवल मनुष्य ही और तब शायद मनुष्य ही मनुष्य को खाने लगेगा।  वैचारिक रूप से तो आज भी आदमी दूसरी तरह के आदमी को खाने पर उतारू है और जो आजकल देवता बने बैठे हैं, वे इसे सामान्य व्यवहार मानकर खाने दे रहे हैं।

लेखक – अजय चन्देल (@chandeltweets)

 

2 thoughts on “असली लड़ाई खाने की है

  1. गहरी सोच
    मेरे एक आसमानी किताब वाले मित्र जो कि मेरे हमराह और मेरे ही निवास के नीचे लोहे को ठोक पीट काट कर और लोगो के घरों की चौखट, दरवाजे, खिड़की बनाने के कार्य में लगे हैं उन्होंने मेरे खाने पर नया शब्द संज्ञा घड़ा घास-फूस का खाना मुझे कोई अचंभा नहीं हुआ क्योंकि वो हलाल और हराम पर अटके थे और मैं निरीह प्राणी अपनी जिव्हा और ऋतु अनुसार भोजन पर उन्होंने मुझे रोस्टेड फिश, कबाब- चिकन जैसे कई ऑफर किये पर मुआ दिल नहीं माना में उनकी नज़र में आदिवासी सही पर सफल और मर्जी के मालिक हूँ विशेषतः अपने खान पान के हिसाब से कि ऋतू के हिसाब से ग्रहण किया भोजन शरीर हेतु अधिक उपयुक्त है वरन जिव्हा अनुसार भोजन के।

    साधुवाद भोजन की इस गहन सोच के अनुसार लेखन शोध पर

  2. गहरी सोच
    मेरे एक आसमानी किताब वाले मित्र जो कि मेरे हमराह और मेरे ही निवास के नीचे लोहे को ठोक पीट काट कर और लोगो के घरों की चौखट, दरवाजे, खिड़की बनाने के कार्य में लगे हैं उन्होंने मेरे खाने पर नया शब्द संज्ञा घड़ा घास-फूस का खाना मुझे कोई अचंभा नहीं हुआ क्योंकि वो हलाल और हराम पर अटके थे और मैं निरीह प्राणी अपनी जिव्हा और ऋतु अनुसार भोजन पर उन्होंने मुझे रोस्टेड फिश, कबाब- चिकन जैसे कई ऑफर किये पर मुआ दिल नहीं माना में उनकी नज़र में आदिवासी सही पर सफल और मर्जी के मालिक हूँ विशेषतः अपने खान पान के हिसाब से कि ऋतू के हिसाब से ग्रहण किया भोजन शरीर हेतु अधिक उपयुक्त है वरन जिव्हा अनुसार भोजन के।

    साधुवाद भोजन की इस गहन सोच के अनुसार लेखन शोध पर

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