अनकही
मैं कब डरी थी बारिश की उन बूँदों से,
जो आकाश से मेरे घर के आंगन को भिगोने आती हैं।
बिजली की गड़गड़ाहट से सहमी जरुर,
पर डर कर कभी उस कोने वाले कोठरी में नहीं जा बैठी।
आवाज़ सुनी कौंधे की तो मन चहक उठा,
बेसुध होकर, चचंल मन से हाथ में छतरी लिया।
जा पहुँची सीढ़ियों पर जो आँगन से सीधे छत को जाती हैं,
ओढ़ी थी छतरी क्योंकि बारिश से बचने को माँ ने कहा था।
बेबाक मन तो झूम रहा था, दौड़ रहा था,
छत के इस कोने से उस कोने तक, फिसलकर गिर जाने को।
एक पल को छतरी लहरा गयी
और एक बूंद पड़ गयी हाथ पर।
इतनी नरम और शीतल बूँद
तन क्या मन भी सिरह उठा।
सिरहन से खुद को समेट लिया,
और बैठ गयी सोचने को।
यह वही छुअन थी।
मानों मेघ की बूंद नहीं, हों तुम्हारी उंगलियाँ।
छू रही मेरे हाथ को,
फिसलते हुए ऐसे जैसे पूरे हाथ को भरना चाहती हैं।
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ दूसरे हाथ में छाता लिए,
होंठों पर मुस्कान और आँखों में हया लिए
बैठी हूँ छत के कोने में।
चौंक जाती हूँ सुनकर माँ की आवाज़।
“वापस आ जाओ बिटिया, बीमार हो जाओगी”
माँ शायद नहीं समझे, पर रोग तो लग गया।
उठ गई झटके से, जवाब देती भी क्या,
इतनी हिम्मत भी तो नहीं थी।
बारिश अभी थमी नहीं, बूंदे
और घनी हो गयीं।
अब भी खोयी हूँ,
फ़िर से ओढ़ लूँ वह छतरी एक पल पहले जो हटायी।
फेंक दूँ इसे छत से नीचे गलियारे में कहीं,
डूबी ही थीं ख्यालों में, बिजली चमकी।
मैंने अपनी बाहों के आलिंगन को औऱ छोटा किया,
बुदबुदाती हुई बढ़ चली उन सीढ़ियों की ओर वापस।
नज़र गयी उस बूंद पर भी,
जो हाथ से इस तरह फिसल रही थी।
मानो कह रही हो, “तुम्हें तो जाना ही था”
“तुमको रोकूँ भी कैसे, उन वादों के हवाले से?
नहीं! तुम्हें जाना ही था, हमेशा रहा यह मन में”
सोच में पड़ गयी, क्या इतने कमज़ोर वादे थे मेरे!
थम गए कदम उस क्षण, पढ़कर उस बूंद की अंतिम गुहार।
वह गिर रही थी फिसलते हुए,
थाम लिया उसे दूसरी हथेली में।
उतरी आँगन में छतरी काँधे में फंसाये,
माँ से नज़र बचाते हुए जा बैठी उस कोने वाली कोठरी में।
किवाड़ बंद कर, लेटी हूँ हथेली आगे कर।
डर कर किसी आवाज़ से चौंककर मैं उठूँ, बूंद फिसल ना जाये।
समेटकर रखना चाहती हूँ इसे
चूमकर मस्तक से नमन भी करना है।
उस क्षण तक, जब तक
इसका कण-कण मैं आत्मसात न कर लूँ।
कवियत्री की तरह ही खूबसूरत कविता..