आम बजट पर आम आदमी की आम समझ
वर्षों पहले माइकल जैक्शन मुम्बई आए थे। आम जनों की छोड़िए, हमारे मुम्बईया सेलेब भी वैसे ही बावले हुए जा रहे थे, जैसे उन्हे देखकर हमलोग पगलाते हैं। हों भी क्यों न, माइकल जैक्शन स्टेज भी अमेरिका से लेकर आए थे। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार हजारों की संख्या में जुटी भीड़ ने प्रोग्राम को खूब एंजॉय किया। अंदरखाने की खबर रखने वाले यह बताते हैं कि एंजॉय करने वाले हजारों लोगों में दो चार सौ को भी बमुश्किल ही समझ आया कि माइकल जैक्शन ने क्या गाया।
बजट पर लिखे लेख में उपरोक्त घटना के जिक्र से चौंकिए मत। आस-पास स्व-घोषित अर्थशास्त्रियों और स्वयंभू बजटविदों की भरमार के बावजूद आम बजट पर आम लोग भी लगभग वैसे ही होते हैं, जैसे माइकल जैक्शन के मुम्बई शो के दर्शक थे। वहाँ तो दर्शकों ने कम से कम एंजॉय कर लिया, इधर तो वित्त मंत्री का बजट भाषण खत्म हो जाता है पर लोगों के पल्ले उस शेर के सिवा शायद ही कुछ पड़ता है जो वित्त मंत्री अपने बजट में किसी से उधार लेकर पढ़ते हैं। इस बार तो मंत्री साहिबा ने शेर के नाम पर कश्मीरियत छलका दिया। इस लेखक को भी अपवाद मत समझिए। उनकी बजटीय समझ ऐसी है कि वह एक नेता जी की उस चिन्ता में शरीक हैं, जो यह कहते हैं कि आम का सीजन तो है नहीं, फिर आम बजट क्यों?
लोगों ने सुबह टीवी खोला तो खुला पाया, एंकरों और विश्लेषकों को। यह कौतूहल हुआ कि ये रात से यहीं हैं या भिनसार पहुँचे हैं। बजटविद उम्मीदों का अंबार खड़ा कर रहे थे। एंकर उन्हे हवा दे रहे थे ताकि टीआरपी बढ़े और यदि उम्मीदें टूटें तो प्राइम टाइम में सरकार पर बरसने का मौका मिले। संवाददाता पल पल की जानकारी जुटाकर या बनाकर परोस रहे थे। एंकर उन्हे कुरेदकर वैसी सूचना निकाल रहे थे, जो थी ही नहीं। आस्तिवविहीन सूत्र सक्रिय कर दिए गए थे। वित्त मंत्री के संसद की ओर निकलते ही संवाददाता टीवी पर साफ दिख रही गाड़ी का रंग, मॉडल और नंबर बताने लगे, दर्शकों की सुविधा के लिए। साफ दिखते मंत्री जी की पोशाक और ‘बही-खाते’ का रंग भी दर्शकों को बता दिया गया। कुछ दार्शनिक टाइप एंकर वित्त मंत्री की प्यारी सी सुनहरी पीली साड़ी के सगुनी और सकारात्मक संकेत बताने लगे – यह वैभव का प्रतीक है, बजट शुभ होगा। बजट भाषण शुरु होते ही मंत्री जी टीवी स्क्रीन पर छा गयीं। दर्शक वित्त मंत्री को सुनने लगे। मौके का फायदा उठाते हुए एंकर और विश्लेषक चाय-चुई लेने लगे, फिरी का।
उधर सोशल मीडिया भी लगा पड़ा था, बजट को स्वयं समझने में कम और दूसरों को समझाने में अधिक। उत्साह दिखाकर अपने अंक बढ़वाने का काम खूब चल रहा था। ट्विटरीय बजटविद् वित्त मंत्री की एक एक बात ऐसे ट्वीट कर रहे थे, जैसे औरों के घर टीवी ही नहीं है या उनकी बिजली गुल हो गयी है। कुछ जने तो बिना टीवी देखे ही इकोनॉमिक टाइम्स के ट्वीट्स का हिन्दी रुपांतर ट्विटर पर धरते हुए रंगे हाथों पकड़े गए। वित्त मंत्री के ब्रीफकेश की जगह बही-खाता आने से उत्साहित कुछ हिन्दी हिटलर सक्रिय हो गये और उन्होंने बजट भाषण हिन्दी में दिए जाने की माँग रख दी। भगवान इन्हें माफ करना, ये भोले लोग हैं और इन्हें यह नहीं पता कि इस देश में राजभाषा को सम्मान देते हुए ‘हिन्दी दिवस’ मनाया जाता है, लेकिन उस समारोह में हिन्दी का महिमामंडन करते हुए कुछ भाषण अंग्रेजी में भी दे दिए जाते हैं। लेखक इस बात के समर्थक हैं कि बजट भाषण अंग्रेजी में हो ताकि बजट न समझने का ठीकरा वह अंग्रेजी पर फोड़ सकें। भाषण यदि हिन्दी में होने लगा तो उनसे बजट समझने आने वाले लोग उन्हें फोड़ देंगे।
किसी ने भेद खोला कि बजट देखने वाला सिर्फ मध्य वर्ग ही होता है, जो सिर्फ टैक्स स्लैब्स पर नजर गड़ाए बैठा होता है। सोशल मीडिया का सब्र सूचकांक लुढ़कने लगा। ‘क्या मिला मिडिल क्लास को’ का तीखा सवाल पूछा जाने लगा और ‘तजहु आस निज निज गृह जाहू’ का निष्कर्ष भी निकाल लिया गया। तभी वित्त मंत्री ने आयकर में ‘भारी छूट’ की घोषणा कर डाली। सुनते ही मिडिल क्लास की ‘जान में जान’ आ गई। सुर्खियाँ बनने लगीं लेकिन पोस्टर फटते ही जब हीरो बाहर निकला तो यह निर्णय करना मुश्किल हो गया कि टैक्स छूट के नाम पर हमारे बीच कटा हुआ तरबूजा बँटा है या हम तरबूजा बनकर कटे हैं या तरबूजा और चाकू के बीच संबंध पूर्ववत ही हैं। मध्यम वर्गीय बेरोजगार तक इस ब्रेन स्टॉर्मिंग में लग गये। परिणाम आना अभी शेष है। कुछ लोग 80C के बदले प्रावधानों पर लाल-पीले होने लगे कि इससे बचत प्रभावित होगी। इस लेखक ने उन्हें ट्वीट करके समझाया, “बचत करना एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। सरकार नहीं चाहती कि 80C से प्रेरित करके इस प्रवृत्ति को असहज बनाया जाए। लोगों के पास कमाने और खा पीकर उड़ा देने का भी कारण होना चाहिए।“
सबसे लंबे बजट भाषण का कीर्तिमान बनने पर तालियाँ बजीं। कुछ लोग बजट का कोरम पूरा होते ही ‘हल्ला-हंगामा’ पर वापस जाने की तैयारी करने लगे। ऐतिहासिक, क्रांतिकारी, समावेशी, दूरदर्शी एवं आवेशी, गरीब विरोधी, देश विरोधी और विपक्ष विरोधी के जुमलों के बीच कुछ सयाने लोग ‘क्या महंगा हुआ, क्या सस्ता’ एवं ‘रुपया कहाँ से आएगा और कहाँ जाएगा’ जैसे लेख इंटरनेट पर पढ़ने लगे। सकल घरेलू उत्पाद, मुद्रास्फीति और कर सरलीकरण जैसे कठिन शब्द देखकर उन्हें लगा कि अर्थशास्त्र से अधिक उन्हे हिन्दी पढ़ने की आवश्यकता है। धीरे धीरे लोगों ने मान लिया कि हर साल की भाँति इस साल भी बजट उनके लिए अबूझ ही है और आम बजट पर आम आदमी की आम समझ इस साल भी आम ही है, खास नहीं।
अधिकांश लोग शाम तक नून-तेल के असली बजट में उलझ गए। कुछ हिम्मत न हारने वाले लोग टीवी पर प्राइम टाइम की शरण जा गिरे। यहाँ विशेषज्ञ बजट समझा रहे थे और दर्शकों को इन विशेषज्ञों की बात समझाने वाले विशेषज्ञ की तलब लग रही थी। दर्शक पूरी तरह निराश नहीं हुए क्योंकि यहाँ अर्थ विश्लेषकों को निरर्थक करते हुए राजनीतिक विश्लेषक हावी हो गए और एंकर्स के ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ के तड़के से मनोरंजन का पिटारा खुल गया।