चित्रगुप्त
सी.जी.श्रीवास्तव अपने कुछ समकालीन संगीतकारों की तुलना में कम आँके जाते हैं, लेकिन उन्होंने हिंदी फिल्मों में अपने लंबे करियर के चलते कुछ ऐसी यादगार धुनें तैयार की हैं कि आप आज भी उन्हें गुनगुनाते हैं। मैं बात कर रहा हूँ चित्रगुप्त श्रीवास्तव की जिनको, जी हाँ, चित्रगुप्त। आपको यह कुछ आश्चर्यचकित कर सकता है कि 1946 से 1988 तक के 40 से अधिक वर्षों में चित्रगुप्त ने करीब 144 फिल्मों में संगीत दिया।
पत्रकार गिरिजा राजेंद्रन के अनुसार, डबल एमए चित्रगुप्त जब बॉम्बे पहुंचे तो उनको वहाँ का एक भी शख्स नहीं जानता था। नितिन बोस से मुलाक़ात होने के बाद आखिरकार उन्हें कोरस में गाने का मौका मिल ही गया। कुछ दिनों बाद ही चित्रगुप्त श्री नाथ त्रिपाठी के सहायक के रूप में काम पा चुके थे।
बिहार के मूल निवासी चित्रगुप्त जी को यह तमगा हासिल है कि भारत में बनने वाली पहली भोजपुरी फिल्म – गंगा मैया तोहे पियरी चढाईबो (1962) – का संगीत उन्होंने ही तैयार किया था। देश रत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद को इसकी रिलीज से पहले पटना के सदाकत आश्रम में आयोजित एक विशेष स्क्रीनिंग में दिखाया गया था।इस गीत में आप रफ़ी साहब को सुनते-सुनते अपने आंसू पोंछ लेंगे। भोजपुरी फिल्म संगीत तीन-चार दशक चित्रगुप्त के इर्द-गिर्द ही रहा। उनसे भटक कर वह भटक ही गया जो आप आज देख सकते हैं।
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उनकी पहली फिल्म थी नाडिया की फाइटिंग हीरो (1946) और फिर इसके बाद अन्य स्टंट फिल्मों, पौराणिक कथाओं और पीरियड ड्रामा पर आधारित फिल्मो की उनके पास जैसे भीड़ ही लग गयी थी। कई वर्षों के लिए बॉलीवुड की बी क्लास फिल्मो के जंगल में खो जाने के बाद, चित्रगुप्त को पहली बड़ी कमर्शियल सफलता मिली एवीएम की फिल्म भाभी (1957) से जिसके रफ़ी साहब द्वारा गाये गीत “चल उड़ जा रे पंछी” ने धूम मचा दी थी। बाद में एचएमवी ने इस गीत को तलत महमूद की आवाज़ में भी पेश कर डाला था। कवर वर्ज़न का शायद यह पहला मौका रहा होगा।
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इस प्रकार एक और गीत “एक रात में …” जब आपने सुना होगा तो आपको लगा होगा कि शायद नौशाद या किसी नामचीन संगीतकार की रचना है। लता-मुकेश का यह युगल गीत उस ज़माने में सभी की जुबां पर हुआ करता था।
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एसएन त्रिपाठी के साथ अपने जुड़ाव की बदौलत चित्रगुप्त शुरुआत में ही बी-फिल्म उद्योग के साथ जुड़ते चले गए जहाँ फिल्म निर्माता तंग बजट और ज्यादातर गैर-सितारों के साथ काम किया करते थे। ये फिल्मे होती थी स्टंट, फैंटेसी, पौराणिक / धार्मिक कथा, ऐतिहासिक काल के नाटक, अपराध रोमांच आदि से सम्बंधित कथावस्तु और ढेर सारे गीत।
चित्रगुप्त की बहुमुखी प्रतिभा का गवाह इसके सिवा कुछ नहीं हो सकता कि ऐसे आसामान्य शैलियों में भी उन्होंने अपना काम दिल लगाकर किया। उनका पहला हिट, रफ़ी-शमशाद बेगम की जोड़ी द्वारा गाया गया था। गीत था “अदा से झूमते हुए”, फिल्म थी नानाभाई भट्ट की “सिंदबाद द सेलर” और साल था (1952) का।
उसके अगले ही बरस चित्रगुप्त ने आशा भोसले की आवाज़ में “ओ नाग कहीं जा ना बसियो रे” फिल्म “नाग पंचमी”( 1953) देकर सभी को चौंका दिया। उनकी पुत्री सुधा के अनुसार यही वह गीत था जहां क्लैविओलाइन का उपयोग पहली बार “नागिन बीन” की फेमस आवाज़ के लिए किया गया था। जबकि ज्यादातर लोग यही मानते हैं कि हेमंत कुमार वाली फिल्म “नागिन” पहली फिल्म थी जिसमे कल्यानजी भाई ने क्लैविओलाइन का पहली बार उपयोग बीन की आवाज़ के लिए किया था।
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लेकिन बहुत जल्दी ही चित्रगुप्त का संगीत इन आसामान्य कथाओं में ही खो कर रहा गया और इससे उनके करियर पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ता गया। उनके पुत्र आनंद-मिलिंद ने एक इंटरव्यू में बताया था कि उनके पिता किसी भी निर्माता को मना नहीं कर पाते थे। शायद यही कारण रहा कि चित्रगुप्त जी के हिस्से सिर्फ “बी” या “सी” क्लास फिल्मे ही ज्यादा आयीं। ऐसा होने के बाद भी कभी चित्रगुप्त जी ने संगीत की गुणवत्ता से कभी समझौता नहीं किया।
1955 शिव भक्त चित्रगुप्त के करियर में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। हालाँकि यह भी एक पौराणिक कथा चित्र था जो कि यह मद्रास स्थित एवीएम प्रोडक्शंस के संस्थापक एवी मयप्पन द्वारा निर्मित और निर्देशित किया गया था। चित्रगुप्त जी की बरसों पुरानी मुराद भी पूरी हुई और पहली बार उनको लता जी का साथ मिला जो करीब २५० गीतों तक साथ रहा जिसमे करीब १५० लता जी के अकेले गाये हुए गीत थे। आप इस गीत को सुनेंगे तो आप समझ जायेंगे कि लता जी किसी भी गीत पर अपनी छाप कैसे छोड़ जाती थीं। उनके लिए संगीतकार से ज्यादा मायने संगीत रखता था।
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उनके कुछ सर्वाधिक याद किये जाने वाले गीत भूली हुई फिल्मों के ही हैं। आपको उनका संगीत राज कपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद, शम्मी कपूर की फिल्मो में नहीं मिलेगा। ऐसे ही एक फिल्म थी “काली टोपी लाल रूमाल” जिसका एक गीत के बोल सुनते ही आप चौंक जायेंगे। जी हाँ “लागी छुटे ना” चित्रगुप्त जी ही रचना थी।
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इस गीत की ख़ास बात इसका हारमोनिका इंटरल्यूड है। चित्रगुप्त के एक अन्य गीत “तेरी दुनिया से दूर” (ज़बक, 1961) में आप इस इंटरल्यूड को गीत की धुन के रूप में सुन सकते हैं।
https://www.youtube.com/watch?v=hGuHno7cHFk
मीना कुमारी की फिल्म “मैं चुप रहूंगी” तमिल फिल्म कलथुर कन्नम्मा का रीमेक थी, जिसमें कमल हासन ने बाल कलाकार के रूप में शुरुआत की थी। “मैं चुप रहूंगी” उन तीन फिल्मों में से एक थी, जिसके लिए मीना कुमारी को उस साल सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार नामांकन मिला था। लता-रफ़ी का युगल गीत, ‘चाँद, जाने कहाँ खो गया” आपको संगीत के उसी सुनहरे दौर में ले जाएगा जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है।
https://www.youtube.com/watch?v=l3ELq16zSMc
रफी साहब की दिल को छू लेने वाली दर्द भरी आवाज़ में अशोक कुमार के ऊपर फिल्माया गाया फिल्म “(तूफ़ान में प्यार कहाँ, 1963)” का गीत “इतनी बड़ी दूनिया इतना बड़ा मेला” में इतना दर्द था कि जब अशोक कुमार की धर्मपत्नी चल बसी तो उन्होंने चित्रगुप्त साहब को फोन करके इस गीत का कैसेट मंगवाया था।
https://www.youtube.com/watch?v=dxyUMfow7WI
रफ़ी साहब, मुकेश जी, लता जी अदि के साथ ही आपको चित्रगुप्त जी के ज़्यादातर गीत सुनाई देंगे क्यूंकि, चित्रगुप्त ने किशोर कुमार की आवाज़ का बहुत बार उपयोग नहीं किया रहा। लेकिन लता मंगेशकर के साथ किशोर का ये युगल गीत जब आप सुनेंगे तो आपको किशोर दा की आवाज़ में एक अलग अल्हडपन सुनाई देगा।
https://www.youtube.com/watch?v=2N47eWtoHRc
“ऊंचे लोग” फिरोज खान की शुरुआती फिल्मो से है जिसको आज भी सिर्फ उसके गीत “जाग दिल ए दिवाना” के लिए याद किया जाता है। यह वो समय था जब “बड़ा ओर्केस्ट्रा” और नए वाद्द्य यंत्र फ़िल्मी संगीत में अपनी जगह बना चुके थे। उस दौर को झुठलाते हुए चित्रगुप्त जी ने रफ़ी साहब को ऐसी आवाज़ के साथ पेश किया कि पूरी संगीत बिरादरी चौंक गयी थी। कम से कम ओर्केस्ट्रा के साथ सिर्फ हरी प्रसाद जी की बांसुरी, मनोहारी दा का सैक्सोफोन और केरसी लार्ड के अकॉर्डियन के खूबसूरत सुरों ने इस बेमिसाल गीत की रचना की थी। कहा जाता है कि रफ़ी साहब स्वयं अपनी आवाज़ को सुनकर चौंक गए थे।
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साहिर लुधियानवी के साथ की गयी फिल्म वासना के बिना चित्रगुप्त जी की बात अधूरी ही रह जाने वाली है। “इतनी नाजुक ना बनो” और “ये परबतों के दायरे” जैसे क्लासिक गीतों के लिए ही आज “वासना” को याद किया जाता है। साहिर साहब जैसा सब जानते हैं धुन पर गीत नहीं लिखते थे और लिखने के बाद धुन बनाने पर ही काम करने को राज़ी होते थे। वासना एक ऐसे फिल्म थी जिसमे उन्होंने तीन गीत धुनों पर लिखे थे।
https://www.youtube.com/watch?v=RuXY4O8epPI
चित्रगुप्त के नियमित अरेंजर जॉनी गोम्स नाम के गोवानी थे, जो अन्य गोवानी अरेंजरों जैसे एंथोनी गोंसल्विज़, सेबेस्टियन आदि के साथ मुंबई के हिंदी फिल्म जगत में अपना जलवा दिखा रहे थे। बाद में एक लंबे समय तक दिलीप ढोलकिया ने भी उनके सहायक के रूप में काम किया था। ढोलकिया ने भी अपनी शुरुआत एसएन त्रिपाठी के साथ एक कोरस गायक के रूप में ही की थी और बाद में वो उनके ही सहायक हो गए थे। बाद में जब चित्रगुप्त एक स्वतंत्र संगीत निर्देशक के रूप में शुरूआत की तो ढोलकिया ने भी उनकी सहायता करना शुरू कर दिया था।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि “ मैं कौन हूँ” उन गिने चुने गीतों में से हैं जिसको प्यारेलाल जी ने अरेंज किया था।
https://www.youtube.com/watch?v=nx6iNizyzZU
60 के दशक के उत्तरार्ध और 70 के दशक की शुरुआत में हिंदी फ़िल्मी संगीत करवटें बदलने लगा था। संगीत निर्देशकों की पुरानी पीढ़ी गुजर गई थी, उनको भुला दिया गया था, संगीत से दूर हो गई थी और अपने अंतिम समय में थी। आरडी बर्मन और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसे युवा संगीत निर्देशक बुलंदियों पर थे। लोगों ने चित्रगुप्त को भी सलाह दी कि उनको भी बदलना होगा नहीं तो वह पीछे रह जायेंगे पर उन्होंने बदलना स्वीकार नहीं किया और जवाब में ऊँचे लोग, आकाश दीप, औलाद और वासना जैसी फिल्मे दे डालीं।
मेरा पसंदीदा आज भी “वासना” फिल्म का “ये परबतों के दायरे” गीत ही है जो कि वह गीत है जिसकी रिकॉर्डिंग पर मिलिंद ब्रास सेक्शन की भारी भरकम आवाजों की वजह से घबरा कर बस रोने ही लगे थे।
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फिल्म औलाद जिसमे महमूद मुख्य भूमिका में थे उस समय आई थी जिस समय महमूद अपने पूरे जमाल पर थे और उनकी गिनती उस समय के सुपर स्टार में होने लगी थी। चित्रगुप्त ने रिस्क लेते हुए एक नया प्रयोग कर डाला जिस के लिए महमूद ने गीत को पूरी तरह् से नकार दिया था। मन्ना दा के गाये इस गीत में पूरब और पश्चिम के संगीत का इतना अद्भुत संगम था कि वैसा आजतक हो ही नहीं पाया। कहाँ एक संगीत ख़त्म होता है ओर दूसरा शुरू , आप सुन कर हैरत में पड़ जायेंगे। किसी तरह महमूद को मनाया गया और फिर यह गीत इतना चल निकला कि औलाद फिल्म को लोग इस गीत के लिए ही देखने जाते थे।
https://www.youtube.com/watch?v=1ZSvfQkVqd0
1968 में दिल का दौरा पड़ने से चित्रगुप्त का करियर डूबता ही चला गया। दौरे से उबरने के बाद उन्होंने फिल्मों के लिए रचनाएं जारी रखीं, लेकिन उन्हें लगता था कि उन्होंने अपना पुराना स्पर्श खो दिया है। उन्होंने साज़ और सनम (1971), इंतज़ार (1973) और अंगारे (1975) जैसी फिल्मों में कुछ शानदार गीतों के साथ वापसी की लेकिन इन फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर बहुत खराब प्रदर्शन किया और फिर चित्रगुप्त का संगीत हम सभी से बिछड़ता ही गया। साज और सनम के इस गीत में लता जी को आप सुनकर कहीं से नहीं कह सकते कि चित्रगुप्त जी के संगीत में कुछ कमी आई थी।
https://www.youtube.com/watch?v=-kNthacR7x0
“आके मिल जा” जैसे गीत ने लोगों को एक बार फिर याद दिलाया कि उनकी धुन आज भी शानदार हैं। किन्तु उस समय बलदेव खोसला और रिंकू नाम की अभिनेत्री वाली फिल्म “इंतज़ार” कब आयी और कब चली गयी लोगों को पता ही नहीं चला और इसके साथ ही चित्रगुप्त का संगीत भी खोता चला गया।
https://www.youtube.com/watch?v=w3qN49_nm7U
1974 में हुए पक्षाघात ने उन्हें तोड़ कर रख दिया लेकिन चित्रगुप्त ने अभी भी हार नहीं मानी थी। बलम परदेसिया (1979) की अभूतपूर्व सफलता के बाद, उन्होंने 80 के दशक में भोजपुरी फिल्मों के लिए एक सफल और शानदार संगीतकार के रूप में अपनी वापिसी की और संगीत जगत पर फिर छा गए।
https://www.youtube.com/watch?v=R3JlPXbMBpc
इंसाफ़ की मंज़िल (1988), उनकी आखिरी फिल्म थी जिसमें अलीशा चिनाय का एक गीत था जिसे, मिलिंद के अनुसार, यह लेस्ली लेविस द्वारा प्रोग्राम किया गया था। यह एक अजूबा ही है कि हिंदी फिल्म जगत में एक ऐसा नायब संगीतकार भी था जिसने अपनी शुरुआत फियरलेस नादिया और अमीरबाई कर्नाटकी के साथ करते हुए अंत में उस ज़माने की पॉप क्वीन अलीशा के साथ तक काम किया।
यह बहुत संभव है कि आज मैंने आपको जो गीत सुनवाए हैं आपने पहले सुने हो पर आपको या नहीं पता चला होगा कि उनके संगीतकार चित्रगुप्त जी थे। ए-ग्रेड फिल्मों से ना जुड़ पाना, बड़े बैनर वाले निर्माताओं से काम नहीं माँगना ऐसे कुछ कारण रहे कि उनका संगीत फिल्मों से ऊपर उठ गया। हर फिल्म में चित्रगुप्त का संगीत फिल्म की तुलना में अधिक जाना और पहचाना गया। चित्रगुप्त के कुछ सबसे लोकप्रिय गीतों पर आप जब नज़र डालते हैं तो आपको विसंगति अवश्य ध्यान में आएगी।
14 जनवरी, 1991 को चित्रगुप्त की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई जिनकी 97वीं पुण्यतिथि हम इस सप्ताह मना रहे हैं। जी हाँ, 16 नवम्बर 1917 को ही इस महान संगीतकार चित्रगुप्त श्रीवास्तव का जन्म हुआ था। उनके बेटे, आनंद – मिलिंद भी अपने पिता के नक़्शे कदम पर चले हुए सफल संगीत निर्देशक बन गए और अपनी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।
क्या ही सुखद संयोग है कि चित्रगुप्त पूजा के दिन ही संगीतकार चित्रगुप्त का जन्मदिन भी है। भावभीनी श्रद्धांजलि।
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